मणिकर्णिका का इसलिए पड़ा था 'झांसी की रानी' नाम, छोटी सी उम्र में किए थे ये शानदार कार्य

Rani Laxmibai : मणिकर्णिका का इसलिए पड़ा था 'झांसी की रानी' नाम, छोटी सी उम्र में किए थे ये शानदार कार्य

मणिकर्णिका का इसलिए पड़ा था 'झांसी की रानी' नाम, छोटी सी उम्र में किए थे ये शानदार कार्य

google image | Rani Laxmi Bai

New Delhi : आज भी लोग उन्हें झांसी की रानी कहते हैं। रानी लक्ष्मी बाई को उनकी वीरता के कारण जाना जाता हैं और लोग उन्हें याद करते हुए कहते है, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी। रानी लक्ष्मी बाई का जन्म वाराणसी उत्तर प्रदेश में 19 नवंबर 1828 को हुआ था। उन्हें मनुबाई के नाम से भी जाना जाता था। उनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे था, वह बिठुर न्यायलय में पेशवा थे। उनकी माता का नाम भागीरथी बाई था, वह घरेलू महिला थी। मणिकर्णिका का विवाह झांसी नरेश महाराजा गंगाधर राव नेवालकर से 19 मई 1842 में हुआ। इतिहासकारों के मुताबिक एक ज्योतिष ने यह भविष्यवाणी की थी कि मनु बड़ी होकर राजरानी बनेगी और ऐसा हुआ भी है। 

बचपन मे कैसी थी मणिकर्णिका
मणिकर्णिका को बचपन में उनके पिता छबीली कहकर बुलाते थे। रानी लक्ष्मी बाई की माता की मौत के बाद उनके पिता उन्हें अपने साथ बिठूर लेकर चले गए थे। मणिकर्णिका बचपन में बाजीराव के बेटों के साथ खेला करती थी। वह उनके साथ ही पढ़ाई-लिखाई करती थी। शिक्षा के साथ रानी लक्ष्मीबाई निशानेबाजी, घुड़सवारी, आत्मरक्षा और घेराबंदी की ट्रेनिंग्स लिया करती थी। रानी लक्ष्मीबाई को बचपन से ही अस्त्र शस्त्र चलाना और घुड़सवारी करना बहुत पसंद था।

रानी लक्ष्मी बाई को नानासहाब ने दी थी चुनौती
बचपन से ही रानी लक्ष्मी बाई की बहादुरी के किस्से मशहूर थे। उन्होंने बड़ी-बड़ी चुनौतियों का सामना किया था और वह बहुत होशियार भी थी। घुड़सवारी करने के दौरान नानासहाब ने मनू बाई को चुनौती दी। अगर हिम्मत है तो मेरे साथ घुड़सवारी करके दिखाओ। मनू ने यह चुनौती मंजूर कर ली और घुड़सवारी करने के लिए तैयार हो गई। जहां नानासहाब का घोड़ा तेज गति से भाग रहा था। वहीं, मनू भी पीछे नहीं रही, मनू ने नानासहाब को पीछे छोड़ दिया। जब नानासहाब ने मनू के घोड़े को पीछे छोड़ने की कौशिश की तो नानासहाब घोड़े से नीचे गिर गए और उनके मुंह से चीख निकली की मनू में मारा बचाओ। जिसके बाद मनू अपना घोड़ा मोड़कर वापस पीछे गई और नानासहाब को अपने घोड़े पर बैठाकर अपनी घर ले गई। इसके बाद नानासहाब ने मनू को शाबाशी दी और उनकी घुड़सवारी की तारीफ भी की थी। इसके बाद नानासहाब ने मनू को तलवार चलाना, भाला बरछा फैंकना और बंदूक से निशाना लगाना सिखाया। 

रानी लक्ष्मी बाई का विवाह
रानी लक्ष्मी बाई की शादी महज 14 साल की उम्र मे उत्तर भारत में स्थित झांसी के महाराजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुई थी। इस तरह काशी की मनू अब झांसी की रानी बनी। मनू की शादी के बाद उनका नाम महारानी लक्ष्मीबाई रखा गया। उनका वैवाहिक जीवन बहुत अच्छा बीत रहा था, परंतु कुछ समय पश्चात उनके जीवन मे संकट के बादल छाह गए। इस दौरान 1851 मे उन दोनों को बेटे की प्राप्ति हुई, लेकिन वह बस 4 महीने ही जीवित रहा। जिसके बाद से महाराजा गंगाधर राव नेवालकर बीमार रहने लगे। जिसके बाद दोनो ने मिलकर रिश्तेदारों का बेटे को गोद लिया। जिसका नाम आनंद से बदलकर दामोदर राव रखा गया। 

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में लक्ष्मीबाई की भूमिका
10 मई 1857 मे ब्रिटिशर्स के खिलाफ विद्रोह शूरू हुआ था। इस दौरान ब्रिटिशर्स की बंदूकों की गोलियां सुअर और गोमांस को मारी गई। जिससे हिंदुओ और धार्मिक भावनाओं मे काफी आहत हुईं। इस वजह से देश मे आक्रोश फैल गया। जिसके बाद सरकार को इस विद्रोह को ना चाहते हुए भी दबाना पड़ा और झांसी को महारानी लक्ष्मी बाई को सौंप दिया। 1857 में उनके पड़ोसी राज्य ओरछा और दतिया के राजाओं ने झांसी पर हमला कर दिया, लेकिन महारानी लक्ष्मीबाई ने सबको अपनी बहादुरी का परिचय दिया और जीत हासिल की।

1858 में ब्रिटिशर्स ने किया झांसी पर हमला
एक बार फिर ब्रिटिशर्स ने सर हूय नेतृत्व मे झांसी पर हमला कर दिया। इस बार झांसी को बचाने के लिऐ तात्या टोपे के नेतृत्व मे लगभग 20,000 सैनिकों के साथ लड़ाई लड़ी। लगभग 2 हफ्ते तक यह लड़ाई चली। 1858 मे जब अंग्रेजों ने झांसी पर कब्जा कर लिया, इसके बाद झांसी की रानी लक्ष्मी बाई काल्पी पहुंची यहां पर तात्या टोपे ने महारानी लक्ष्मी बाई का साथ दिया। तब 22 मई 1858 मे एक बार फिर रानी लक्ष्मी बाई ने अपने साहस का परिचय दे दिया और जीत हासिल की। 

रानी लक्ष्मी बाई की मौत
रानी लक्ष्मी बाई ने 17 जून 1858 मे किंग्स रॉयल आयरिश के खिलाफ लड़ाई लड़ी और इस युद्ध में उनकी सेविकाओं ने उनका साथ दिया था। इस बार रानी का घोड़ा नया था। क्योंकि उनका पहला घोड़ा राजरतन पिछले युद्ध मे मारा गया था। इस बार रानी को पता लग गया था कि बात यह लड़ाई उनके जीवन की आखिरी लड़ाई हैं। इस स्तिथि को समझने के बावजूद वीरता के साथ लड़ाई करती रही। युद्ध मे रानी बहुत घायल हो चुकी थीं। इसके बाद रानी को सैनिक गंगादास मठ मे ले गए और उन्हे गंगाजल पिलाया जिसके बाद महारानी लक्ष्मी बाई ने अपना अंतिम इच्छा करते हुऐ कहा कि कोई भी अंग्रेज उन्हे हाथ न लगाए। इस तरह 18 जून 1858 मे ग्वालियर के फूलबाग छेत्र मे वीरगति को प्राप्त हुई। इस तरह उन्होंने अपने देश को स्वतंत्रता दिलवाने मे अपनी जान न्योछावर कर दी।

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