पिता के पास पढ़ाई के लिए पैसे नहीं थे, दलित को रसोइया रखा तो झेला बहिष्कार

Chaudhary Charan Singh Jayanti : पिता के पास पढ़ाई के लिए पैसे नहीं थे, दलित को रसोइया रखा तो झेला बहिष्कार

पिता के पास पढ़ाई के लिए पैसे नहीं थे, दलित को रसोइया रखा तो झेला बहिष्कार

Tricity Today | Chaudhary Charan Singh

Chaudhary Charan Singh Jayanti : किसानों के मसीहा कहे जाने वाले चौधरी चरण सिंह की आज 119वीं जयंती है। चौधरी चरण सिंह का नाम आते ही देश की राजनीति में एक अलग ही तूफान आ जाता है। चौधरी चरण सिंह वह व्यक्ति थे, जिन्होंने अपनी विचारधारा से भारतीय राजनीति में ना केवल खेती बाड़ी और किसान बल्कि मजदूरों को उनका वह हक दिलवाया, जिससे हर कोई व्यक्ति दिल से अपनी जुबान पर चौधरी चरण सिंह का नाम लेने को मजबूर है। 

पारिवार के विस्थापन से शुरू हुआ जीवन
आज चौधरी चरण सिंह की 119वीं जयंती पर ट्राईसिटी टुडे की खास पेशकस में हम आपको उनके जीवन से जुड़े कुछ छुए कुछ अनछुए पहलुओं के बारे में बताएंगे। यह कहानी वर्ष 1,900 के आसपास शुरू होती है। बुलंदशहर जिले के स्याना इलाके में चितसोना अलीपुर गांव के रहने वाले मीर सिंह और नेत्र कौर 5 एकड़ खेती पट्टे पर करने के लिए करीब 15 किलोमीटर दूर नूरपुर गांव में जा बसे। यहीं 23 दिसम्बर 1,902 को चरण सिंह ने जन्म लिया। कुछ साल बाद जमीदार ने यह जमीन ऊंची कीमत पर बेचने का फैसला ले लिया। यह कीमत चुकाना मीर सिंह के बूते की बात नहीं थी। मीर सिंह को जमीन छोड़नी पड़ी और वह एक बार फिर परिवार को लेकर 60 किलोमीटर दूर मेरठ के भूपगढ़ी गांव में जाकर बस गए। वर्ष 1922 तक चरण सिंह का परिवार यहीं रहा।

ताऊ लखपत सिंह ने उठाया पढ़ाई का खर्च
चरण सिंह ने प्रारंभिक शिक्षा भूपगढ़ी से दो किलोमीटर दूर जानी खुर्द गांव में ग्रहण की। वह प्रतिदिन पैदल स्कूल जाते थे। चरण सिंह का अगला पड़ाव मेरठ शहर का मॉरल ट्रेनिंग स्कूल था। जहां वह एक साल पढ़े और इसके बाद 1914 में मेरठ के गवर्नमेंट कॉलेज में दाखिल जो गए। नौवीं कक्षा में उन्होंने विज्ञान विषय चुना। साथ में अंग्रेजी, अर्थशास्त्र और इतिहास विषय थे। चरण सिंह ने 1919 में हाईस्कूल और 1921 में इण्टरमीडिएट की परीक्षा पास की। इसके आगे उन्हें पढ़ाना उनके पिता मीर सिंह के बूते की बात नहीं थी। ताऊ लखपत सिंह का अध्ययनशील और होनहार चरण सिंह पर विशेष स्नेह था। उन्हें पता चला कि उनके प्रिय भतीजे की पढ़ाई उसके पिता की आर्थिक तंगी के चलते बाधित हो सकती है। लिहाजा, उन्होंने वादा किया कि चरण सिंह की पढ़ाई पूरी करने तक उनकी शिक्षा का खर्च वह उठायेंगे।

आगरा कॉलेज में रहकर उच्च शिक्षा हासिल की
चरण सिंह उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए आगरा कॉलेज चले गए। 1923 में बीएससी, 1925 में एमए और 1927 में कानून की पढ़ाई पूरी की। इसी दौरान 25 जून 1925 को गायत्री देवी से उनका विवाह हो गया था। चौधरी चरण सिंह ऐसे वक्त में बड़े हुए जब देश में आजादी की लड़ाई चरम पर थी। वह भी इससे अछूत नहीं रहे। वह सामाजिक और राजनीतिक बदलाव के लिए उस वक्त की दो महान विभूतियों स्वामी दयानंद सरस्वती और महात्मा गांधी से बहुत प्रभावित हो गए। उन पर ओजस्वी हिन्दू राष्ट्रवादी कविताओं की रचना करने वाले हिन्दी कवि मैथिली शरण गुप्त की कविता "भारत भारती" और कबीर का भी प्रभाव था। अप्रैल 1919 में अमृतसर के 'जलियांवाला बाग़' कांड ने उन्हें झकझोर दिया था।

वकालत, आर्य समाज और कांग्रेस साथ-साथ
चौधरी चरण सिंह ने पेशेवर, सामाजिक और राजनीतिक जीवन की एकसाथ शुरुआत की। तत्कालीन मेरठ जिले के गाजियाबाद शहर में उन्होंने दीवानी के मुकदमों से वकालत शुरू की। साथ ही साइमन कमीशन का विरोध उनका पहला राजनितिक कदम था। वह 27 वर्ष की उम्र में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य बन गए। गाज़ियाबाद शहर कांग्रेस कमेटी की स्थापना की। जिसमें 1939 तक कई पदों पर रहे। समांतर रूप से 1939 तक गाज़ियाबाद आर्य समाज समिति के अध्यक्ष और महासचिव रहे।

पहली बार छह महीनों के लिए जेल यात्रा की
गांधी जी के नमक सत्याग्रह में सक्रिय भागीदारी की और 5 अप्रैल 1930 को 6 माह के लिए पहली बार जेल गए। अगले साल मेरठ डिस्ट्रिक्ट बोर्ड में निर्विरोध चुने गए। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि चौधरी चरण सिंह बतौर जनप्रतिनिधि सबसे पहले जिला परिषद के उपाध्यक्ष चुने गए थे। जहाँ 1935 तक कनिष्ठ उपाध्यक्ष और फिर अध्यक्ष रहे। यहीं से गांधी जी की सोच और आदर्शों ने उन्हें और अधिक आकर्षित किया और वह पूर्णतः उनके प्रभाव में आ गये। अहिंसक क्रांति, सामाजिक बदलाव, हरिजनों का उत्थान, सत्याग्रह, बलिदान, आत्म संयम, सादगी एवं खादी, "सत्य ही धर्म है" के नारे को उन्होंने अपने जीवन में उतार लिया। उनके लिए दयानंद का सामाजिक परिवर्तन और कबीर का आकारहीन आकर्षण, दोनों गांधी की राजनीतिक क्रांति में सिमट गए।

दलितों को अपना रसोइया रखने पर बहिष्कार
जब चरण सिंह आगरा कॉलेज के हॉस्टल में रहते थे तो एक भंगी के हाथ का बना खाना खाते थे। बाद में गाजियाबाद आकर उन्होंने एक दलित को अपने घर रसोइया रखा, जो 1939 तक उनके साथ रहा। इस कारण चरण सिंह को अपने समाज और रिश्तेदारों के बीच बहिष्कार भी झेलना पड़ा था।

कैसे चरण सिंह और छपरौली एक-दूसरे के पर्याय बने
वर्ष 1937 चौधरी चरण सिंह के राजनीतिक जीवन में बड़ा बदलाव लेकर आया। कांग्रेस इण्डिया एक्ट के तहत देश में 1921 से लगातार हो रहे प्रांतीय और स्थानीय चुनावों का बहिष्कार कर रही थी। लेकिन 1937 के चुनाव में भाग लेने का ऐलान कर दिया। यूनाइटेड प्रोविंस असेम्बली के लिए कांग्रेस ने चरण सिंह को मेरठ जिले की दक्षिण-पश्चिम सीट से टिकट दे दिया। इस निर्वाचन क्षेत्र में तहसील बागपत और गाजियाबाद शामिल थीं। उन्होंने कुल मतों के 78 प्रतिशत से ज्यादा हासिल करके नेशनल पार्टी के प्रत्याशी को हरा दिया। इसी सीट का नाम आगे चलकर छपरौली हो गया। उन्होंने इस विधानसभा क्षेत्र का लगातार आठ बार 1937, 1946, 1952, 1957, 1962, 1967, 1969 और 1974 में प्रतिनिधत्व किया। आपको यहीं एक जानकारी और दे दें कि चौधरी चरण सिंह के बाद उनकी और उनकी विचारधारा से बने दलों का कोई उम्मीदवार आज तक छपरौली से पराजित नहीं हुआ है। चाहे देश में कोई भी राजनीतिक लहर क्यों न आई हो।

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