Greater Noida News : भारत में रावण को खलनायक माना जाता है, लेकिन उत्तर प्रदेश के इटावा में रावण को नायक के किरदार में दिखाया जाता है। इटावा की इस रामलीला के जैसी कोई दूसरी रामलीला कही पर भी आयोजित नही होती है। करीब 164 वर्षों से रावण को नायक मानकर यहां के लोग उनकी पूजा अर्चना करते है। लोगों का मानना है कि रावण उनके लिए कहीं ना कहीं संकटमोचन की भूमिका अदा करता है। आम धारणा ऐसी बनी हुई है कि रावण के पुतले की लकड़ियों को लोग अपने-अपने घरों में रखते हैं, ताकि किसी भी तरीके के संकट से बच सके। यहां रामलीला के समापन में रावण के पुतले को दहन करने के बजाय उसकी लकड़ियों को घर ले जा कर रखा जाता है, ताकि सालभर उनके घर में विघ्न बाधा उत्पन्न न हो सके।
रावण के पुतले में लगाई लकड़ी लोगों की रक्षा करती है
इटावा जिले के जसवंतनगर में रावण की न सिर्फ पूजा की जाती है, बल्कि पूरे शहर भर में रावण की आरती उतारी जाती है। इतना ही नहीं रावण के पुतले को जलाया नहीं जाता है। लोग पुतले की लकडियों को अपने अपने घरों में ले जाते हैं, ताकि वह साल भर हर संकट से दूर रह सकें। यहां रावण संकट मोचक की भूमिका निभाता चला आया है। आज तक जसवंतनगर मे रामलीला के वक्त भारी हुजुम के बावजूद भी कोई फसाद न होना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
यूनेस्को की रिपोर्ट में दर्ज यह रामलीला
माना यह जाता है कि दुनियाभर में जहां-जहां रामलीलाएं होती हैं, इस तरह की रामलीला कहीं पर भी नहीं होती है। इसी कारण साल 2005 में यूनेस्को की ओर से रामलीलाओं के बारे जारी की गई रिर्पाेट में भी इस रामलीला को जगह दी जा चुकी है। करीब 164 साल से अधिक पुरानी इस रामलीला का आयोजन दक्षिण भारतीय तर्ज पर मुखोटों को लगाकर खुले मैदान में किया जाता है। त्रिडिनाड की शोधार्थी इंद्राणी रामप्रसाद करीब 400 से अधिक रामलीलाओं पर शोध कर चुकी हैं, लेकिन उनको जसवंतनगर जैसी रामलीला कहीं पर भी देखने को नहीं मिली है। यहां रावण की आरती उतारी जाती है और उसकी पूजा होती है। हालांकि ये परंपरा दक्षिण भारत की है, लेकिन फिर भी उत्तर भारत के कस्बे जसवंतनगर ने इसे खुद में क्यों समेटा हुआ है ये अपने आप में ही एक अनोखा प्रश्न है ?
सबसे पुरानी है रामलीला
जानकार बताते हैं कि रामलीला की शुरुआत यहां 1855 में हुई थी, लेकिन 1857 के गदर ने इसको रोका। फिर 1859 से यह लगातार जारी है। यहां रावण, मेघनाथ, कुम्भकरण ताम्बे, पीतल और लोह धातु से निर्मित मुखौटे पहन कर मैदान में लीलाएं करते हैं। शिव जी के त्रिपुंड का टीका भी इनके चेहरे पर लगा हुआ होता है। जसवंतनगर के रामलीला मैदान में रावण का लगभग 15 फुट ऊंचा रावण का पुतला नवरात्र के सप्तमी को लग जाता है। दशहरे वाले दिन रावण की पूरे शहर में आरती उतार कर पूजा की जाती है और जलाने की बजाय रावण के पुतले को मार मारकर उसके टुकड़े कर दिये जाते हैं। वहां मौजूद लोग रावण के उन टुकड़ों को उठाकर घर ले जाते हैं।
रावण की तेरहवीं भी होती है
जसवंतनगर में रावण की तेरहवीं भी की जाती है। दशहरा पर जब रावण अपनी सेना के साथ युद्ध करने को निकलता है तब यहां उसकी धूप-कपूर से आरती होती है और जय-जयकार भी होती है। दशहरा के दिन शाम से ही राम और रावण के बीच युद्ध शुरू हो जाता है जो कि डोलों पर सवार होकर लड़ा जाता है। रात दस बजे के आसपास पंचक मुहूर्त में रावण के स्वरुप का वध होता है। पुतला नीचे गिर जाता है। एक और खास बात यहां देखने को मिलती है, जब लोग पुतले की बांस की खप्पची, कपड़े और उसके अंदर के अन्य सामान नोंच नोंच कर घर ले जाते हैं। उन लोगों का मानना है कि घर में इन लकड़ियों और सामान को रखने से भूत-प्रेत का प्रकोप नहीं होता है।