एक ऐसा कम्प्यूटर साइंटिस्ट जो सत्ता में हिस्सेदारी हासिल करने का मास्टर था, 35 वर्षों का पूरा सफरनामा

अजित सिंह : एक ऐसा कम्प्यूटर साइंटिस्ट जो सत्ता में हिस्सेदारी हासिल करने का मास्टर था, 35 वर्षों का पूरा सफरनामा

एक ऐसा कम्प्यूटर साइंटिस्ट जो सत्ता में हिस्सेदारी हासिल करने का मास्टर था, 35 वर्षों का पूरा सफरनामा

Tricity Today | Chaudhary Ajit Singh

Chaudhary Ajit Singh Special : राजनीति में हर विकल्प खोलकर चलने वाले और जोड़तोड़ के माहिर चौधरी अजित सिंह नहीं रहे। कोरोना महामारी ने उन्हें भी छीन लिया। लेकिन भारतीय राजनीति के इतिहास में उनका किरदार हमेशा बड़ा हिस्सा हासिल करता रहेगा। करीब 35 वर्ष लम्बे सियासी सफर में अजित सिंह ने न जाने कितने उतार चढ़ाव देखे। वह सत्ता की चाबियां हाथ में लेकर चले तो कई बार हासिए पर भी पहुंच गए, लेकिन बार-बार न केवल वापसी की बल्कि अपनी प्रासंगिकता को साबित किया।

राजनीति की शुरुआत और हेमवतीनंदन बहुगुणा के साथ विवाद
अमेरिका में पढ़ाई और नौकरी करने के बाद वर्ष 1986 में अजित सिंह ने वापसी की और किसान ट्रस्ट के अध्यक्ष के तौर पर सियासी सफर शुरू किया। पिता चौधरी चरण सिंह बीमार थे। 29 मई 1987 को उनकी मृत्यु हो गई। उन दिनों चौधरी चरण सिंह और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवतीनंदन बहुगुणा भारतीय लोकदल में थे और साथ-साथ राजनीति कर रहे थे। अजित सिंह और हेमवतीनंदन बहुगुणा के बीच विवाद हो गया। अजित सिंह ने इस विवाद के बाद लोकदल (अजित) बना लिया और उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए। हेमवतीनंदन बहुगुणा भी बीमार ही चल रहे थे। 17 मार्च 1989 को उनका भी निधन हो गया।


Photo: पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और चौधरी अजित सिंह

चंद्रशेखर से नजदीकी बनी और जनता पार्टी में शामिल हो गए
वर्ष 1988 में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से उनकी नजदीकियां बन गईं। चंद्रशेखर ने उन्हें जनता पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया। 1989 आते-आते जनता पार्टी का जनता दल में विलय हो गया। अजित सिंह अपने पिता चौधरी चरण सिंह के गढ़ बागपत से चुनाव लड़कर लोकसभा में पहुंच गए। बोफोर्स तोप घोटाले की छाया के चलते जनता दल सत्ता में पहुंचा। विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने और अजित सिंह उनके मंत्रिमंडल में कॉमर्स एन्ड इंडस्ट्रीज मिनिस्टर रहे। जनता दल भी ज्यादा दिन नहीं चल पाया। इसके बिखरने के बाद अजित सिंह ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में हाथ आजमाने की कोशिश की। यूपी में अजित-वीपी सिंह और मुलायम सिंह यादव-चंद्रशेखर के दो ध्रुव बन चुके थे। जनता दल के विधायकों का बड़ा धड़ा मुलायम सिंह यादव-चंद्रशेखर के साथ खड़ा हो गया। लिहाजा, अजित सिंह को पछाड़कर मुलायम सिंह यादव यूपी के मुख्यमंत्री बनने में कामयाब हो गए। कई वर्षों तक अजित सिंह संघर्षरत रहे और अपने लिए जमीन बनाने में जुट गए। 1996 में अजित सिंह सत्तासीन कांग्रेस में शामिल हो गए। उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव ने अपनी सरकार में खाद्य प्रसंस्करण मंत्री बना लिया।


Photo: महेंद्र सिंह टिकैत और चौधरी अजित सिंह

महज एक साल में उनका कांग्रेस से भी मोह भंग हो गया
महज एक साल में उनका कांग्रेस से भी मोह भंग हो गया। अजित सिंह ने न केवल कांग्रेस बल्कि लोकसभा से भी त्यागपत्र दे दिया। उस वक्त उत्तर प्रदेश ही नहीं पूरे देश में भारतीय किसान यूनियन के मुखिया महेंद्र सिंह टिकैत सर्वमान्य किसान नेता के रूप में स्थापित हो चुके थे। लिहाजा, समान विचारधारा के नाम पर 1997 में महेंद्र सिंह टिकैत और अजित सिंह ने मिलकर भारतीय किसान कामगार पार्टी बनाई। लेकिन ज्यादा दिनों तक यह सियासी मेल भी नहीं चला। चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत से नाराजगी बढ़ने के बाद उन्होंने 1998 में भारतीय किसान कामगार पार्टी को भी अलविदा बोल दिया।

राष्ट्रीय लोकदल का गठन करके किसान राजनीति को धार दी
अजित सिंह ने एकबार फिर भारतीय लोकदल और लोकदल के पुराने संगठन को नए नाम राष्ट्रीय लोकदल के रूप में खड़ा किया। नए संगठन का फोकस जाट बाहुल्य वेस्ट यूपी तक सीमित किया और वेस्ट यूपी का नए राज्य के रूप में गठन मुख्य एजेंडा रखा। यह वक्त भारतीय जनता पार्टी के चढ़ाव का था। ऊपर से महेंद्र सिंह टिकैत की भारी नाराजगी थी। लिहाजा, अपने गढ़ बागपत से 1998 का लोकसभा चुनाव भाजपा प्रत्याशी सोमपाल शास्त्री के सामने हार गए। यह अजित सिंह को राजनीतिक करियर में पहला और बड़ा झटका था।


Photo: अजित सिंह अपने पिता चौधरी चरण सिंह और परिवार के साथ

वर्ष 1999 में न केवल वापसी की बल्कि सत्ता में पहुंच गए
आखिरकार महज 13 महीने बाद एकबार फिर लोकसभा चुनाव हुआ और चौधरी अजीत सिंह ने बाजी पलटने में कामयाबी हासिल कर ली। इस बार बागपत में अजीत सिंह ने न केवल सोमपाल शास्त्री को हराया बल्कि राष्ट्रीय लोकदल के दो और सांसद जिताने में कामयाबी हासिल की। जिसकी बदौलत केंद्र में एनडीए का घटक दल बन गए। उन्हें अटल बिहारी वाजपेई ने वर्ष 2001 में कृषि मंत्री बनाया। इससे अजित सिंह को बड़ा फायदा मिला। वर्ष 2002 का उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव अजित सिंह ने भाजपा से दोस्ती करके लड़ा। 38 सीटों पर उन्होंने अपने प्रत्याशी उतारे। कामयाबी 14 सीटों पर ही मिली।


Photo: अटल बिहारी वाजपेयी और चौधरी अजित सिंह

यूपी और केंद्र के लिए अलग-अलग रणनीति बनाकर चले
चौधरी अजित सिंह के सामने राजनीतिक संकट लगभग पूरी उम्र खड़े रहे। अब ऐसा वक्त आ चुका था, जब केंद्र में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की सरकारें आ-जा रही थीं। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में इन दोनों राष्ट्रीय दलों की सरकार नहीं बन रही थीं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी मजबूत होती जा रही थीं। ऐसे में चौधरी अजीत सिंह ने केंद्र और राज्य के लिए अलग-अलग रणनीति पर काम करना शुरू किया। वर्ष 2003 में अजित सिंह मंत्री का पद चला गया और वर्ष 2004 में केंद्र से अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार भी चली गई। अब केंद्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस वापसी कर चुकी थी। लिहाजा, कांग्रेस पुराने खराब रिश्ते आड़े आ गए और अजित सिंह ने फिर कुछ वक्त के लिए उत्तर प्रदेश पर निगाह लगाई


Photo: अजित सिंह और मायावती

यूपी में भाजपा को छोड़कर मायावती का दामन थाम लिया
अजित सिंह का राष्ट्रीय लोकदल केंद्र में एनडीए के साथ वर्ष 2012 तक बना रहा। 2009 का लोकसभा चुनाव एनडीए में लड़ा। उत्तर प्रदेश की 12 सीटों में से रालोद ने 5 पर जीत हासिल की थी। जबकि, 2004 के चुनाव में उन्हें 7 सीट मिली थीं। इधर उत्तर प्रदेश में रालोद ने बहुजन समाज पार्टी से गठबंधन किया। रालोद को वेस्ट यूपी में 17 विधानसभा सीटों पर जीत मिली। यह पार्टी का सर्वोत्कृष्ट प्रदर्शन था। रालोद मायावती की सरकार में भी शामिल हुआ, लेकिन करीब एक साल बाद 2004 में मायावती सरकार गिर गई।


Photo: अजित सिंह और मुलायम सिंह

चिर प्रतिद्वंद्वी मुलायम सिंह से हाथ मिलाने से गुरेज नहीं किया
समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने सरकार बनाने की कवायद शुरू की। अजित सिंह ने अपने चिर प्रतिद्वंद्वी मुलायम सिंह से हाथ मिलाने से गुरेज नहीं किया। जिसका लाभ यह मिला कि मंत्रिमंडल में कई महत्वपूर्ण विभाग लेने के अलावा अजित सिंह ने विधानपरिषद और राज्यसभा में अपने कई चहेतों को पहुंचाया। वर्ष 2004 का लोकसभा चुनाव अजित सिंह ने मुलायम सिंह के साथ मिलकर लड़ा। रालोद के हिस्से में दस सीटें आईं, लेकिन उनके तीन सांसद ही जीत पाए। यह सब जानते थे कि अजित-मुलायम की बेमेल दोस्ती अधिक दिनों तक चलने वाली नहीं है। इस बीच अजित सिंह और पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह एकबार फिर नजदीक आए। दोनों ने मुलायम सिंह से पुराना हिसाब चुकाने के लिए कई मोर्चे खोल दिए। वर्ष 2007 का विधानसभा चुनाव आते-आते रालोद ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। ग्रेटर नोएडा के पास बझेड़ा खुर्द में रिलायंस पावर प्रोजेक्ट को मुद्दा बनाकर सरकार और मुलायम सिंह पर खूब हमले किए। 

मुलायम सिंह सत्ता से बाहर हुए, रालोद ने सबसे बड़ा चुनाव लड़ा
चौधरी अजित सिंह और मुलायम सिंह यादव के बीच हुए इस घमासान का असर वर्ष 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव पर साफ नजर आया। मुलायम सिंह यादव को करारी हार का सामना करना पड़ा। दूसरी ओर राष्ट्रीय लोकदल ने अपने इतिहास का सबसे बड़ा चुनाव लड़ा, लेकिन कामयाबी कुछ खास नहीं मिल पाई। 2007 का चुनाव रालोद ने अपने बलबूते लड़ा। 254 सीटों पर प्रत्याशी उतारे पर कामयाबी 10 सीटों पर ही मिली। लिहाजा, इस राजनीतिक संघर्ष का नुकसान चौधरी अजित सिंह को भी बड़े पैमाने पर उठाना पड़ा। दूसरी ओर मायावती की बहुजन समाज पार्टी इस चुनाव में पूर्ण बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश में वापसी कर गई। अब एक बार फिर अजित सिंह के सामने उत्तर प्रदेश की राजनीति में सारे दरवाजे बंद हो चुके थे और केंद्र का रुख करना उनकी मजबूरी बन गई थी।


Photo: अजित सिंह, मायावती और अखिलेश यादव

कांग्रेस और मायावती ने अजित सिंह को तरजीह नहीं दी
एक और केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और दूसरी और उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी। मायावती केंद्र में कांग्रेस को समर्थन कर रही थीं। अजित सिंह ने एक बार फिर यूपीए में दाखिल होने की कोशिश की, लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिल पाई। यूपीए-1 का कार्यकाल खत्म होने से ठीक पहले अमेरिका के साथ हुए परमाणु करार पर वामदलों ने कांग्रेस से समर्थन वापस ले लिया। केंद्र सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव भी आया। जिस पर ना चाहकर भी अजित सिंह ने मुलायम सिंह और मायावती के साथ सरकार का समर्थन किया। परमाणु करार के बहाने अजित सिंह ने बसपा सुप्रीमो मायावती से मेल की कोशिश की। यह कोशिश परवान नहीं चढ़ सकी। ऐसे में उन्हें वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भी एक बार फिर भाजपा का दामन थामने को मजबूर होना पड़ा। भाजपा के साथ उन्होंने 9 प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे और केवल पांच सीटों पर ही कामयाबी मिली।


Photo: अजित सिंह और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह

2011 के आखिर में एकबार फिर कांग्रेस से दोस्ती हो गई
वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव का परिणाम आते ही महज 36 घंटे बाद अजित सिंह ने कांग्रेस से दोस्ती का हाथ बढ़ाया। लेकिन मुलायम सिंह यादव और मायावती के दबाव के चलते कांग्रेस ने अजित सिंह का समर्थन लेने से इनकार कर दिया। ऐसे में अजित सिंह दिसंबर 2011 तक विपक्ष के साथ ही बैठे रहे। अंततः भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर शुरू हुई मुहिम के दौरान कांग्रेस ने उनके किसान नेता वाले चेहरे को अपने पक्ष में लाने के लिए दोस्ती का हाथ बढ़ाया। अजित सिंह एक बार फिर केंद्र सरकार में शामिल हो गए। उन्हें मनमोहन सिंह की दूसरी सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी गई। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव तक चौधरी अजित सिंह कांग्रेस के साथ ही बने रहे।



पिछले 7 साल राजनीतिक करियर में सबसे खराब वक्त रहा
वर्ष 2014 का लोकसभा चुनाव अजित सिंह ने कांग्रेस के साथ ही लड़ा। नरेंद्र मोदी की प्रचंड लहर के सामने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल का सूपड़ा साफ हो गया। अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक लंबे अरसे बाद चौधरी अजित सिंह अपने गढ़ बागपत संसदीय क्षेत्र से बुरी तरह हार गए। उन्हें मुंबई से रिटायर होकर आए पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह के सामने हार का सामना करना पड़ा। दूसरी ओर उनके बेटे जयंत चौधरी मथुरा सीट से हेमा मालिनी के सामने हारे। इन दोनों सीट का चौधरी चरण सिंह और अजित सिंह से खास रिश्ता रहा है। इतना ही नहीं 2017 के विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय लोकदल अपने सबसे मजबूत किले छपरौली विधानसभा क्षेत्र को भी हार गया। 2019 के लोकसभा चुनाव में अजित सिंह और जयंत चौधरी ने वापसी की भरपूर कोशिश की। दोनों ने अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र भी बदले। अजित सिंह चुनाव लड़ने के लिए जाट बाहुल्य संसदीय क्षेत्र मुजफ्फरनगर चले गए। जयंत चौधरी मथुरा छोड़कर बागपत वापस आ गए। अजित सिंह को अनुमान था कि जयंत चौधरी को देखकर जाट मतदाता उनके साथ खड़े हो जाएंगे, लेकिन यह सारे बदलाव भी बेमानी साबित हुए। एक बार फिर दोनों पिता-पुत्र बुरी तरह लोकसभा चुनाव हारे। इस दौरान उत्तर प्रदेश में पहले सपा और फिर भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार आईं। लिहाजा, किसी ने रालोद की सुध नहीं ली।

दिल्ली में बंगला खाली हुआ, वेस्ट यूपी में समांतर जाट नेता खड़े हुए
इसी दौरान केंद्र सरकार ने अजित सिंह का करीब 30 साल पुराना लुटियन जोन में किसान ट्रस्ट के नाम से आवंटित बंगला खाली करवाया। जिसे लेकर जाटों ने विरोध भी किया, लेकिन सरकार ने किसी भी कीमत पर झुकने से इनकार कर दिया। भाजपा ने पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में रालोद की मोनोपोली को तोड़ने में कसर नहीं छोड़ी। केंद्र और राज्य सरकारों ने कई जाट नेता खड़े किए हैं। अब जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में केंद्र सरकार के कृषि बिलों के खिलाफ आंदोलन चरम पर है तो अजित सिंह और जयंत चौधरी को राष्ट्रीय लोकदल से खासी उम्मीदें हैं। हाल ही में संपन्न हुए जिला पंचायत चुनाव में अजित सिंह को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ठीक-ठाक सीटें मिली हैं। इसी बीच कोरोना महामारी के कारण अजित सिंह की रुखसती राष्ट्रीय लोकदल के पक्ष में जाट मतदाताओं की सहानुभूति खड़ी कर सकती है। कुल मिलाकर अपने 35 वर्ष लंबे राजनीतिक कैरियर में चौधरी अजीत सिंह सत्ता में हिस्सेदारी हासिल करने वाले मास्टर साबित हुए हैं।

(लेखक पंकज पाराशर मूल रूप से बागपत के निवासी हैं। वेस्ट यूपी की राजनीति के विश्लेषक हैं।)

Copyright © 2023 - 2024 Tricity. All Rights Reserved.