नोएडा न्यूज : 'जब तक समाज में विषमता है, तब तक समाजिक न्याय की आवश्यकता है।' पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की यह लाइन अब इतिहास के पन्नों से निकलकर सियासी कुरुक्षेत्र में आ डटी है। लगभग साढ़े तीन दशक बाद सियासी हलकों में एक बार फिर श्रीराम की जयकार और 'मंडल' की हुंकार गूंजने लगी है। अब से कोई 35 साल पहले 'मंडल' को सत्ता से बेदखल करने के लिए 'कमंडल' का सहारा लिया गया था। मौजूदा दौर में इसके उलट कमंडल को परास्त करने के लिए मंडल के जिन्न को बोतल से बाहर निकालने की कोशिशें की जा रही हैं।
1990 में सरकार ने मानी थी मंडल की सिफारिश
समाज और समय की नब्ज को पहचानते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार ने साल-1979 में बीपी मंडल की अगुवाई में आयोग का गठन किया था। इसका मकसद देश के सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोगों की पहचान करना था। साल-1980 में आयोग ने अपनी रिपोर्ट पेश की थी। किन्तु, आयोग की सिफारिशों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। साल-1990 में वीपी सिंह की सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग को नौकरियों और शैक्षिण संस्थानों में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया। तब यह कहा जा रहा था कि वीपी सिंह ने चुनाव में ओबीसी, दलित और आदिवासी वोट बैंक को साधने के मकसद से मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया है। लेकिन, चुनाव में उन्हें इस वर्ग ने उन्हें अपना नेता नहीं स्वीकारा।
मंडल से खुला जातीय सियासत का रास्ता
साल-1990 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद देश की सियासत ने अपना रास्ता बदल लिया। जाति आधारित आरक्षण के बाद देश में जातीय सियासत का पौधा तेजी से बड़ा होने लगा। बड़ी आबादी वाले जातियों के नेता उभरने लगे। वे अपनी बिरादरी के उत्थान की राजनीति में कूद पड़े। मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, उमा भारती, कल्याण सिंह, शिवराज सिंह चौहान, अशोक गहलोत, शिबू सोरेन, चौधरी अजित सिंह, ओम प्रकाश राजभर, रामबिलास पासवान, सोनेलाल पटेल, संजय निषाद जैसे नेता सिर्फ बानगी भर हैं। इनमें से कई नेता राज्य और केंद्र की सत्ता में मजबूत दखल रखते हैं। कुछ ने तो राज्यों में मुख्यमंत्री की कुर्सी को भी सालों तक सुशोभित किया।
जातीय राजनीति से बिखर गया विपक्ष
साल-1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा ढहने के बाद भाजपा को तुरंत सियासी लाभ नहीं मिला, लेकिन साल-1996 आते-आते उसने सत्ता की ओर कदम बढ़ा दिया। 13 दिन, 13 महीने और फिर पांच साल तक भाजपा ने अटल बिहार बाजपेयी के नेतृत्व में सरकार चलाई। यद्यपि साल-2004 से लेकर 2014 तक कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए की सरकार रही। लेकिन, साल-2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने सरकार बना ली। उसके बाद से मोदी की नीतियों के आगे विपक्ष में बैठे सभी दलों की हालत बेहद खराब हो गई। यहां तक कि उन्हें अपना सियासी अस्तित्व ही खतरा दिखने लगा। यही दुश्वारियां, जातिगत राजनीति करने वाले लोगों को एक बार फिर एकजुट होने पर विवश कर रही हैं।
कमंडल को चुनौती देने को तैयार मंडल
अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे विपक्षी दलों को यह लगने लगा है कि अगर अब भी वे एकजुट नहीं हुए तो उनका नामो निशान मिट जाएगा। यूपी में चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ चुकीं बसपा सुप्रीमो मायावती के सितारे भी गर्दिश में हैं। बीते चुनाव में उनका वोट बैंक 11 फीसदी पर सिमट गया है। इसी प्रकार बीते दो चुनावों से सपा भी सत्ता से बाहर है। विपक्ष में बैठी कांग्रेस समेत सभी क्षेत्रीय दलों को यह लगने लगा है कि मोदी के करिश्मे से पार पाने के लिए उन्हें एकजुट होना ही होगा। इसी मकसद से मंडल समर्थित पार्टियां इंडिया गठबंधन में शामिल होने को आतुर हैं। अगर, सब कुछ ठीक रहा तो साल-2024 के आम चुनाव में बीजेपी के कमंडल को मंडल की कड़ी और कठिन चुनौती का सामना करना होगा। लोकसभा चुनाव अब से चंद महीने की दूरी पर खड़ा है। देखना दिलचस्प होगा कि सियासी कुरुक्षेत्र में लड़े जाने वाले जंग में दिल्ली की सत्ता पर कौन काबिज होता है।