सुखी जीवन के लिए श्राद्ध करना क्यों आवश्यक है, बता रहे हैं पण्डित पुरूषोतम सती

सुखी जीवन के लिए श्राद्ध करना क्यों आवश्यक है, बता रहे हैं पण्डित पुरूषोतम सती

सुखी जीवन के लिए श्राद्ध करना क्यों आवश्यक है, बता रहे हैं पण्डित पुरूषोतम सती

Tricity Today | पण्डित पुरूषोतम सती

हिंदू शास्त्रों में कहा गया है कि जो स्वजन अपने शरीर को छोड़कर चले गए हैं चाहे वे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, उनकी तृप्ति और उन्नति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध है। 
"श्रद्धया इदं श्राद्धम्"

विभिन्न प्राचीन ऋषि मुनियों एवं वेद-पुराणों में श्राद्ध के विभिन्न लक्षण बताए गए हैं।

महर्षि पाराशर के अनुसार- 'देश, काल तथा पात्र में हविष्यादि विधि द्वारा जो कर्म तिल, यव और कुशा आदि से तथा मंत्रों से श्रद्धापूर्वक किया जाए उसे श्राद्ध कहते हैं।   

चन्द्र मास के अनुसार आश्विन और सूर्य मास के अनुसार भाद्रपद कृष्ण पक्ष को हिन्दू धर्म में श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष के रूप में मनाया जाता है जो कि पूर्णिमा से कृष्ण पक्ष की अमावस्या तक के 16 दिनों में होता है। श्राद्ध की महिमा एवं विधि का वर्णन विष्णु, वायु, वराह, मत्स्य, गरूड पुुराणों एवं महाभारत इत्यादि  शास्त्रों में किया गया है। श्राद्ध का अर्थ अपने परिवार, वंश परंपरा, संस्कृति और इष्ट के प्रति श्रद्धा रखना है।

माना जाता है कि सावन की पूर्णिमा से ही पितृ मृत्यु लोक में आ जाते हैं और नवांकुरित कुशा की नोकों पर विराजमान हो जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितृ पक्ष में हम जो भी पितरों के नाम का निकालते हैं, उसे वे सूक्ष्म रूप में आकर ग्रहण करते हैं। केवल तीन पीढ़ियों का श्राद्ध और पिंड दान करने का ही विधान है। पितृ पक्ष, ननिहाल पक्ष और ससुराल पक्ष के तीन पीढ़ियों के स्त्री और पुरुष के निमित श्राद्ध में पिंड दान और तर्पण होते हैं। तीनों परिवारों में कोई अन्य भी हो जिसका श्राद्ध करना हो तो उसके निमित भी तर्पण करने चाहिए। सभी पितृ इसी आशा में मृत्यु लोक में आते हैं कि उनके वंशज उनके निमित श्राद्ध कर्म करेंगे और पितृ पक्ष के 16 दिनों में अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितृ वापस चले जाते हैं। 

धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है जो कि श्राद्ध कर्म से उतर जाता है।

जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है, उसी तिथी को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है।

एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।
अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है और सभी सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं एवं घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है।

पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के, तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के और तीन पीढ़ियों तक के ससुराल पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितृ या पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है। 
 
मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध प्रमुख बताये गए है जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं।

यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है। मृत्यु के पश्चात वार्षिक श्राद्ध के उपरांत निम्न तीन श्राद्ध अवश्य करने चाहिए।

  1. नैमित्तिक श्राद्ध: किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। जिस माह और तिथि को व्यक्ति की मृत्यु हुई हो उसी माह की उस तिथि में ये श्राद्ध होते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए कि कोई व्यक्ति पार्वण श्राद्ध कर रहा हो तो सोचे कि यह श्राद्ध ना करे। ऐसा करने वाला पाप का भागी बनता है।
  2. पार्वण श्राद्ध: पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। पितृ पक्ष में मृत्यु तिथि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। जिसकी मृत्यु तिथि ज्ञात ना हो उसको अमावस्या को श्राद्ध करना चाहिए।
  3. नांदीमुख श्राद्ध: किसी भी शुभ कार्य जैसे अनुष्ठान, विवाह इत्यादि कार्यों के समय किए श्राद्ध को नांदीमुख श्राद्ध कहते हैं। पितरों के निमित्त सुखी राशन, कपड़े और दक्षिणा देनी चाहिए जिससे हमारे कार्य में कोई रुकावट ना हो और पितरों का आशीर्वाद भी मिले।

श्राद्ध का अनुष्ठान करते समय दिवंगत प्राणी का नाम और उसके गोत्र का उच्चारण किया जाता है। हाथों में कुश की पैंती (उंगली में पहनने के लिए कुश का अंगूठी जैसा आकार बनाना) डालकर काले तिल से मिले हुए जल से पितरों को तर्पण किया जाता है। मान्यता है कि एक तिल का दान बत्तीस सेर स्वर्ण तिलों के बराबर है। गरुड़ पुराण के अनुसार श्राद्ध कोई भी कर सकता है और पुत्र होना अनिवार्य नहीं है। स्त्री पुरुष कोई भी कर सकता है। अगर किसी के तीन पुत्र हों तो तीनों पुत्रों का कर्तव्य है कि श्राद्ध करे।

किसी को अपने जिंदा रहते हुए ऐसा लगता हो की कोई उसका श्राद्ध नहीं करेगा तो वह अपना श्राद्ध जीते जी करने के लिए स्वतंत्र माना गया है। संन्यासी वर्ग अपना श्राद्ध अपने जीवन में कर ही लेते हैं। 

श्राद्ध का वैज्ञानिक आधार
चन्द्र लोक के ऊपरी भाग में पितृ लोक कहा गया है और पितृ पक्ष के समय चन्द्रमा धरती के सबसे नजदीक होता है जिसके कारण उसकी आकर्षण शक्ति का प्रभाव धरती और उस पर रहने वाले जीवों पर सर्वाधिक पड़ता है।

महत्व
जिनके यहाँ से पितरों को अर्ध्य-कव्य मिलता है, उनके पितर तृप्त होकर जाते हैं, आशीर्वाद देते हैं। उनका आशीर्वाद कल्याणप्रद होता है। जो श्राद्ध नहीं करते उनके पितर अतृप्त होकर ‘धिक्कार’ का नि:श्वास छोड़कर जाते हैं।  विष्णु पुराण के अनुसार पितृ आशा के साथ धरती लोक पर आते हैं और सोचते हैं कि क्या कोई ऐसा हमारे कुल में पैदा होगा जो धन को प्राथमिकता ना दे कर हमारे लिए पिंड दान और तर्पण करेगा। श्राद्ध कर्म ना करने पर पितृ दोष लगता है जिसका प्रभाव आने वाली पीढ़ियों पर वंशानुगत, शारीरिक और मानसिक रोगों और पीड़ाओं के रूप में दिखता है।

कौन कर सकता है श्राद्ध
सिर्फ बेटे ही श्राद्ध कर सकते है ऐसा नहीं है। शास्त्रानुसार ऐसा हर व्यक्ति जिसने मृतक की सम्पत्ति विरासत में पायी है और उससे प्रेम और आदर भाव रखता है, उस व्यक्ति का स्नेहवश श्राद्ध कर सकता है। विद्या की विरासत से भी लाभ पाने वाला छात्र भी अपने दिवंगत गुरु का श्राद्ध कर सकता है। पुत्र की अनुपस्थिति में पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध-कर्म कर सकता है। छोटी उम्र का ऐसा बच्चा, जिसका उपनयन संस्कार न हुआ हो, पिता को जल देकर नवश्राद्ध कर सकता। शेष कार्य उसकी ओर से कुल पुरोहित करता है।

महत्वपूर्ण
श्राद्ध श्रद्धा का ही एक रूप है इसमें जो भी आप कर सकते हैं कीजिये। विष्णु पुराण के अनुसार गरीब केवल मोटा अन्न, जंगली साग-पात-फल और न्यूनतम दक्षिणा, वह भी ना हो तो सात या आठ तिल अंजलि में जल के साथ लेकर ब्राह्मण को देना चाहिए या किसी गाय को दिन भर घास खिला देनी।

जो इतना करने में भी सक्षम ना हो उसको अपने दोनों हाथों को दक्षिण दिशा में उठाकर दिक्पालों और सूर्य से याचना करनी चाहिए कि हे! प्रभु मेरे पास कुछ नहीं है, मैंने हाथ वायु में फैला दिये हैं, मेरे पितर मेरी भक्ति से संतुष्ट हों। इसका फल भी समान प्राप्त होता है परन्तु सक्षम व्यक्ति ऐसा करेगा तो अवश्य ही पाप का भागी होगा।

श्राद्ध पक्ष 2020 में
1 सितंबर पूर्णिमा से 16 सितंबर तक श्राद्ध पक्ष रहेगा। इस बार 17 दिनों तक पक्ष होगा क्योकि द्वितीया के श्राद्ध दो दिन होंगे।

पंडित पुरूषोतम सती
अरिहंत अम्बर
8860321113

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