जनता के बीच जाने से क्यों डर रहे जनप्रतिनिधि, नैतिक बल का अभाव?

आंदोलित गौतमबुद्ध नगर : जनता के बीच जाने से क्यों डर रहे जनप्रतिनिधि, नैतिक बल का अभाव?

जनता के बीच जाने से क्यों डर रहे जनप्रतिनिधि, नैतिक बल का अभाव?

Tricity Today | पढ़िए पंकज पाराशर का विश्लेषण

NOIDA : पिछले दो लोकसभा और दो विधानसभा चुनावों के दौरान गौतमबुद्ध नगर के मतदाता भारतीय जनता पार्टी के हम क़दम हैं। गौतमबुद्ध नगर लोकसभा सीट पर सांसद डॉक्टर महेश शर्मा या यूं कहें कि भारतीय जनता पार्टी की जीत का अंतर बढ़ा है। गौतमबुद्ध नगर जिले की तीनों और संसदीय क्षेत्र की पांचों सीट भाजपा की झोली में हैं। मतलब, भाजपा को भरपूर पॉलिटिकल पॉवर इस जिले ने दी है। दूसरी तरफ गौतमबुद्ध नगर के आम आदमी को क्या मिला? रह रहकर यह सवाल यक्ष प्रश्न बन कर खड़ा हो जाता है। जिसका जवाब इन सांसदों और विधायकों को देना चाहिए। लेकिन जनप्रतिनिधि तो जनता से दूर हैं। नोएडा, ग्रेटर नोएडा और ग्रेटर नोएडा वेस्ट में लगातार आंदोलन चल रहे हैं। एक तरफ फ्लैट खरीदार हैं तो दूसरी ओर किसान आंदोलित हैं।

इन्हें वोट देने वालों का प्रश्न है, हमें आपसे क्या मिला? मेरा प्रश्न है, आखिर जनता के बीच जाने से जनप्रतिनिधि क्यों डर रहे हैं? क्या नैतिक बल का अभाव है? कुछ खास बिंदु हैं, जिन पर तवज्जो चहूंगा।

जनता को भरोसा नहीं : फ्लैट खरीदारों और किसानों के आंदोलन का केंद्र दादरी विधानसभा क्षेत्र है। भीषण गर्मी के बीच ग्रेटर नोएडा वेस्ट की एक हाऊसिंग सोसायटी में एक महीने से ज्यादा दिनों तक निवासी धरने पर बैठे रहे। ग्रेटर नोएडा वेस्ट वाले भाजपा को वोट देने के लिए कई किलोमीटर लंबी लाइन लगाते हैं। अब पिछले 53 दिनों से ग्रेटर नोएडा विकास प्राधिकरण के बाहर किसान धरना दे रहे हैं। मतलब, ना तो शहरी खुश हैं और ना देहाती खुश हैं। दादरी से दूसरी बार विधायक तेजपाल सिंह नागर पेशे से अध्यापक थे। जिला पंचायत की राजनीति में रहे हैं। कुल मिलाकर लंबा अनुभव है। सवाल यह उठता है कि वह अपनी बिरादरी के किसानों को समझा क्यों नहीं पा रहे हैं? उनके बीच जाकर बैठने से डर क्यों रहे हैं? उन्हीं के नाम पर तो टिकट मिलता है।

इसी तरह ग्रेटर नोएडा वेस्ट के शहरी लोगों में विधायक की मौजूदगी नहीं की बराबर है। हकीकत ये है कि आम आदमी को विधायक पर भरोसा नहीं है। लोगों का मानना है कि विधायक को सांसद की बदौलत टिकट और मोदी-योगी की बदौलत वोट मिले हैं। इससे ज्यादा उनके पास कुछ नहीं है। उनकी कोई सुनने वाला नहीं है तो उन्हें अपनी सुनाकर क्या करें? दूसरी तरफ करीब दस वर्षों में समस्याएं बढ़ी हैं। समाधान हुए नहीं हैं। विधायक, सांसद के लिए मददगार नहीं बन पाए हैं। सांसद को लगता था कि वह मजबूत और आम आदमी के बीच का आदमी लेकर आए हैं। आखिर अब सांसद भी आम आदमी के बीच जाएं तो कैसे?

ब्यूरोक्रेसी पर पकड़ नहीं : जनता को लाभ वही दिला सकता है, जो अपने हितों को दरकिनार कर सके। इस मामले में जनप्रतिनिधियों की स्थिति खराब है। प्राधिकरणों से गैर जरूरी लाभ लेने के चक्कर में ब्यूरोक्रेसी के सामने खड़े होने की ताकत नहीं है। विधायकों के साथ चलने वाले लोग प्राधिकरणों के वेतनभोगी हैं। प्लॉट लगवाने, बेटों-भतीजों को काम और समर्थकों को ठेके दिलवाने के फेर में फंसकर आभामंडल कुम्हला गया है। कोई कारोबारी प्रतिष्ठानों में बड़े पैमाने पर अवैध निर्माण करके बैठा है। प्राधिकरणों में ही तो इनकी फाइलें हैं। लिहाजा, कोई अफसर जनता के लिए काम कर रहा है या नहीं, उसके काम से सरकार को नुकसान हो रहा है या नफा, यह लखनऊ बताने की हिम्मत कौन करे? किसानों और फ्लैट खरीदारों की समस्याएं इतनी गंभीर भी नहीं कि उनका दस बरस में समाधान नहीं हो पाया। इस मकड़जाल को तोड़ने के लिए खुद में नैतिक बल होना जरूरी है।

पद है पर कद नहीं : कुल मिलाकर विधायकों और सांसद के पास पद है, कद नहीं है। यही वजह है कि भाजपा को सत्ता मिले दस साल पूरे होने वाले हैं लेकिन गौतमबुद्ध नागर के किसान और फ्लैट खरीदार उसी चौराहे पर खड़े हैं, जहां भाजपा ने उन्हें हाथ पकड़कर सहारा देने का वादा किया था। अब लोग सवाल करते हैं, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी की सरकारों में क्या फर्क है? भाजपा विपक्ष में रहकर जिन मांगों का समर्थन कर रही थी, अब सरकार में आकर उन्हें मान नहीं रही है। भाजपा के वह नेता सांसद और विधायक हैं, अब लोगों के बीच आकर बैठने से डर रहे हैं। उन्हें हार-जीत का दर नहीं, क्योंकि मौजूदा माहौल में दोबारा सांसद-विधायक बनने के लिए संघर्ष केवल भाजपा से टिकट हासिल करने तक है।

सरकार हल निकाले : इन हालात में आंदोलित गौतमबुद्ध नगर की पीड़ा सरकार को समझनी होगी। एक तरफ किसान और दूसरी तरफ फ्लैट खरीदार हैं। किसानों को जमीन अधिग्रहण की एवज में अपने हक चाहिए। अपनी गाढ़ी कमाई लुटा चुके फ्लैट खरीदारों को घर चाहिए। दोनों की मांगें जायज हैं। इन दोनों वर्गों की पीड़ा अथॉरिटी का भ्रष्ट सिस्टम है। उसमें बैठे ऐसे लोग हैं, जिन्हें जनप्रतिनिधियों का संरक्षण है। जिले के कुछ परिवारों और अथॉरिटी में तैनात उनके सदस्यों की मनमानी के आगे आईएएस और पीसीएस अफसर लाचार हैं। विकास प्राधिकरणों की एकीकृत ट्रांसफर पॉलिसी का इनको लाभ हुआ। ये लोग यहीं काबिज हैं या वापस लौट आए हैं। जिन अच्छे लोगों को ये पसंद नहीं करते थे, उन्हें 'काला पानी' की सजा करवाई है। मैं भी ट्रांसफर पॉलिसी का समर्थक था। आपने एक राजा के उस सजायफ्ता दरबारी की कहानी सुनी होगी, जो समंदर की लहरों को गिनने के नाम पर भी जहाजियों से वसूली कर लेता है। ऐसा ही कुछ यहां हो गया। यही वजह है कि यूपी में योगी सरकार आए सातवां साल शुरू हो गया है, लेकिन प्राधिकरणों ने समस्याएं सुलझाई नहीं, मुद्दों को और उलझाया है।

लिहाजा, यह ना देखा जाए कि आंदोलन में कौन लोग शामिल हैं? उनके हाथ में किस पार्टी का झंडा है? देखा यह जाए कि जब भाजपा विपक्ष में रहकर इन मुद्दों का समर्थन कर रही थी तो आज सत्ता में रहकर इनका समाधान नैतिक जिम्मेदारी है। बसपा सरकार के दौरान घोड़ी-बछेड़ा और भट्टा-परसौल के किसान आंदोलन याद कीजिए। उस वक्त भी स्थानीय जनप्रतिनिधि 'मूक-बधिर' थे। आज फिर वैसे ही हालात बन रहे हैं। आंदोलन की बात सुनने में जितना ज्यादा वक्त लगाएंगे, नुकसान बढ़ने की संभावना उतनी बढ़ती जाएगी। 

सुरेश खन्ना, सूर्य प्रताप शाही या स्वतंत्र देव सिंह जैसे राज्य सरकार के वरिष्ठ मंत्री के नेतृत्व में शक्ति संपन्न समितियों का गठन किया जाए। समितियों में गौतमबुद्ध नगर में कार्यरत रह चुके अफसर, किसान, फ्लैट खरीदार, यूपी रेरा और विधि विशेषज्ञों को रखा जाए। समस्याएं खत्म करने से खत्म होंगी, अब लंबा लटकाने वाला 'ब्यूटोक्रेटिक फॉर्मूला' काम नहीं आएगा। एक तरफ सरकार पूरी दुनिया से निवेश लेकर आ रही है, दूसरी तरफ किसानों और फ्लैट खरीदारों का यह शोर कर्णप्रिय नहीं है। नहीं भूलें, गौतमबुद्ध नगर ही 'शो विंडो' है। इससे तो खुशनुमा बयार बहनी चाहिए।

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