खतौली में भाजपा की हार के बड़े मायने, भाजपा के मुद्दों और नेताओं का निकला दम

UP by Election Result : खतौली में भाजपा की हार के बड़े मायने, भाजपा के मुद्दों और नेताओं का निकला दम

खतौली में भाजपा की हार के बड़े मायने, भाजपा के मुद्दों और नेताओं का निकला दम

Tricity Today | खतौली में भाजपा की हार

UP by Election Result : उत्तर प्रदेश में गुरुवार को तीन उपचुनाव के नतीजे घोषित हुए हैं। इनमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 2 विधानसभा सीट और मध्य यूपी में एक लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुआ है। विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव मुजफ्फरनगर जिले की खतौली और रामपुर में सदर सीट पर करवाया गया है। इन दोनों सीटों पर उलटफेर भरे परिणाम सामने आए हैं। खतौली विधान सभा सीट भारतीय जनता पार्टी के कब्जे में थी। वहां के मौजूदा विधायक विक्रम सैनी 'हेट स्पीच' के दोषी करार दिए गए। अदालत ने उन्हें सजा सुनाई। कानून के शिकंजे में आने के कारण वह अयोग्य करार दे दिए गए। ठीक यही हाल रामपुर सदर के विधायक और समाजवादी पार्टी के दिग्गज नेता मोहम्मद आजम खान के साथ हुआ। आजम खान भी 'हेट स्पीच' की भेंट चढ़ गए। उन्हें 3 साल की सजा हुई और अयोग्य घोषित कर दिए गए।

खतौली विधानसभा सीट पर राष्ट्रीय लोकदल और समाजवादी पार्टी गठबंधन के उम्मीदवार मदन भैया ने जीत हासिल की है। दूसरी तरफ रामपुर में भारतीय जनता पार्टी ने समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को हरा दिया। है आपको बता दें कि इस उपचुनाव से पहले खतौली सीट भाजपा के कब्जे में थी और रामपुर सीट पर समाजवादी पार्टी के दिग्गज नेता मोहम्मद आजम खान विधायक थे। कुल मिलाकर गुरुवार को आए नतीजे उलटफेर भरे रहे हैं। रामपुर में समाजवादी पार्टी की हार ऐतिहासिक रूप से मायने रखती है, लेकिन खतौली में भारतीय जनता पार्टी की हार बड़े राजनीतिक मायने रखती है। लिहाजा, हम यहां खतौली में राष्ट्रीय लोकदल की जीत पर फोकस करेंगे। रामपुर पर अगले समाचार में चर्चा होगी।

खतौली विधानसभा सीट से वीरेंद्र वर्मा, धर्मवीर सिंह, हरेंद्र सिंह मलिक, सुधीर बालियान और राजपाल बालियान जैसे दिग्गज नेता विधायक रह चुके हैं। इन सारे नेताओं ने मुजफ्फरनगर की जाट राजनीति में बड़ा कद हासिल किया है। खतौली सीट पर 2007 के विधानसभा चुनाव में तब बड़ा उलटफेर हुआ, जब यहां से बहुजन समाज पार्टी के योगराज सिंह ने जीत हासिल की। इसके बाद 2012 का चुनाव बेहद दिलचस्प रहा था। राष्ट्रीय लोकदल ने इस सीट को एक बार फिर हासिल करने के लिए पैराशूट उम्मीदवार करतार सिंह भड़ाना को मैदान में उतारा था। करतार सिंह भड़ाना ने करीब 6,000 वोटों से जीत हासिल कर ली थी, लेकिन 2014 में मुजफ्फरनगर दंगों की नींव कवाल गांव से पड़ी। 'कवाल का बवाल' इस कदर राजनीति पर हावी हुआ कि पूरे उत्तर प्रदेश की फिजा बदल गई। कवाल गांव के निवासी और पुराने आरएसएस कार्यकर्ता विक्रम सिंह सैनी पर समाजवादी पार्टी सरकार ने मुकदमे लगाकर जेल में डाल दिया। यहीं से उनका राजयोग उदित हो गया। 

साल 2017 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने विक्रम सिंह सैनी को खतौली विधानसभा सीट से अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया और उन्होंने समाजवादी पार्टी के चंदन चौहान को करीब 31,000 वोटों से परास्त किया। बड़ी बात यह रही कि 2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल आमने-सामने चुनाव लड़ रहे थे। सिटिंग सीट होने के बावजूद रालोद उम्मीदवार शाहनवाज राणा को केवल 12,846 वोट मिले और उनकी जमानत तक नहीं बच पाई। दरअसल, मुजफ्फरनगर दंगों की वजह से जाट समुदाय समाजवादी पार्टी से कम और रालोद से ज्यादा खफा था। अब 2022 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल का गठबंधन हुआ। इस गठबंधन ने राजपाल सिंह सैनी को मैदान में उतार दिया। भाजपा के विक्रम सैनी एक बार फिर चुनाव मैदान में आए। दोनों सजातीय उम्मीदवारों में तगड़ा मुकाबला देखने के लिए मिला। अंततः विक्रम सैनी को करीब 16,000 वोटों से जीत हासिल हो गई। यहां एक बात और काबिले गौर है। करतार सिंह भड़ाना ने इस सीट पर एक बार फिर वापसी की और बहुजन समाज पार्टी से टिकट हासिल क्र लिया लेकिन 31,412 वोट हासिल कर लिए। करतार सिंह भड़ाना कुछ गुर्जर और कुछ दलित वोटरों तक सिमट कर रह गए।

अब करीब 2 महीने पहले मुजफ्फरनगर की एमपी-एमएलए कोर्ट ने दंगों से जुड़े 'हेट स्पीच' के एक मामले में विक्रम सैनी को 2 साल की सजा सुना दी और यहां उपचुनाव करवाने की नौबत आ गई। महज 9 महीने बाद पब्लिक के सामने अपना प्रतिनिधि चुनने का सवाल था। गुरुवार को जनता का फैसला सामने आ गया है। मतदाताओं ने भाजपा को नकारते हुए रालोद के उम्मीदवार मदन भैया को चुन लिया है। यह नतीजा बड़े मायने रखता है। अभी तक हम आपको खतौली सीट पर राजनीतिक गुणा-गणित समझा रहे थे, अब इस नतीजे के मायने समझिए।

हिन्दू-मुस्लिम पोलराइजेशन खत्म : उपचुनाव में हुए प्रचार के दौरान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खतौली आए। उन्होंने कैराना के पलायन, मुजफ्फरनगर दंगों और 'कवाल के बवाल' का खूब जिक्र किया। कुल मिलाकर भारतीय जनता पार्टी ने पूरे चुनाव में सांप्रदायिक मुद्दे को उठाने की पुरजोर कोशिश की। परिणाम बताता है कि यह मुद्दा अब बेमायने हो चुका है।

जाट वोटरों का भाजपा नेताओं से मोहभंग : सामान्य चुनाव के दौरान शामली जिले की तीनों सीट भाजपा हार चुकी है। कैराना भी इसमें शामिल है। मुजफ्फरनगर की केवल सदर और खतौली सीट भाजपा ने जीती थीं। बुढ़ाना, चरथावल, मीरापुर और पुरकाजी सीट पहले ही समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल ने जीती थीं। अब खतौली भी हाथ से निकल गई। यह पूरा जाट वोटरों की बहुलता वाला इलाका है। भाजपा में बड़ा जाट चेहरा माने जाने वाले संजीव बालियान मुजफ्फरनगर से सांसद हैं। वेस्ट यूपी भाजपा के अध्यक्ष मोहित बेनीवाल शामली के निवासी हैं। भाजपा का युवा जाट चेहरा हैं। तीसरे दिग्गज जाट यूपी भाजपा के अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी हैं। उनकी नियुक्ति का फायदा ना केवल वेस्ट यूपी बल्कि राजस्थान और हरियाणा में भी होगा। यहां खतौली में यह तीनों बेअसर साबित हुए हैं।

जाट-गुर्जर गठजोड़ : सामान्य विधानसभा चुनाव के दौरान जयंत चौधरी मुस्लिम और जाटों को जोड़ने की जुगत लगाते रहे। इस दौरान वह अन्य पिछड़ा वर्ग के महत्वपूर्ण धड़े गुर्जरों को भूल गए थे। जिसका परिणाम था कि गुर्जर वोटर बहुतायत में भारतीय जनता पार्टी के साथ गए थे। खासतौर से पश्चिम उत्तर प्रदेश के जिन इलाकों में रालोद को टिकट मिले, वहां गुर्जर मतदाताओं की संख्या बेहद मायने रखती है। अब इस चुनाव में रालोद मुखिया ने बड़ा प्रयोग करके देखा, जो सफल साबित हुआ है। जयंत चौधरी ने दिल्ली बॉर्डर से उठाकर मदन भैया को जाटलैंड में चुनाव लड़ा दिया। खतौली सीट पर गुर्जरों की तादाद ठीक-ठाक है। जिसका भरपूर फायदा रालोद ने उठाया है। उपचुनाव में गुर्जर, जाट और मुसलमानों की लामबंदी नतीजे बदलने में कामयाब रही है।

विपक्ष का मनोबल बढ़ेगा : इस जीत की बदौलत विपक्ष का मनोबल बढ़ा है। खतौली विधानसभा उपचुनाव के दौरान जयंत चौधरी ने पूरे इलाके के लगभग हर गांव में दौरे किए हैं। वह खासतौर से जाट समुदाय वाले सभी गांवों में गए हैं। चाहे उस गांव में किसी भी खाप के जाट मतदाता क्यों ना हों? खतौली सीट पर मुख्य रूप से बालियान और अहलावत खाप का दबदबा है। ऐसे में जयंत चौधरी की स्वीकार्यता जाट मतदाताओं में बढ़ी है। खास बात यह है कि एक तरफ भारतीय जनता पार्टी के जाट नेताओं की फौज थी और दूसरी तरफ अकेले जयंत चौधरी थे। जयंत सब पर भारी पड़े हैं।

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