जाट राजनीति में छपरौली क्षेत्र के क्या मायने, चौधरी चरण सिंह को कैसे पीएम की कुर्सी तक पहुंचाया

जयंत बने बड़े चौधरी : जाट राजनीति में छपरौली क्षेत्र के क्या मायने, चौधरी चरण सिंह को कैसे पीएम की कुर्सी तक पहुंचाया

जाट राजनीति में छपरौली क्षेत्र के क्या मायने, चौधरी चरण सिंह को कैसे पीएम की कुर्सी तक पहुंचाया

Tricity Today | अजीत सिंह और जयंत चौधरी

Jayant Chaudhary Rasm Pagadi : वेस्ट यूपी और खासतौर से जाट राजनीति में छपरौली विधानसभा क्षेत्र बड़े मायने रखता है। अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि किसानों के मसीहा माने जाने वाले चौधरी चरण सिंह को छपरौली विधानसभा क्षेत्र ने ही पहले उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया और फिर बागपत संसदीय क्षेत्र से वह प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। इसके अलावा एक और बड़ा उदाहरण यह है कि इस विधानसभा क्षेत्र में चौधरी चरण सिंह से लेकर अब तक उनकी पार्टी के सारे उम्मीदवार अजेय रहे हैं।

अजीत सिंह की रस्म पगड़ी में राष्ट्रीय लोकदल ने शक्ति प्रदर्शन किया। बागपत में खाप चौधरियों ने शंखनाद करके जयंत के सिर पगड़ी बंधी। यहां 36 बिरादरी के लोग एक मंच पर नजर आए। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले रविवार को राष्ट्रीय लोकदल ने जाटलैंड बागपत में बड़ा शक्ति प्रदर्शन किया है। छपरौली में पूर्व केंद्रीय मंत्री चौधरी अजित सिंह की श्रद्धांजलि सभा और रस्म पगड़ी कार्यक्रम का आयोजन किया गया। बागपत जिले की छपरौली विधानसभा सीट चौधरी परिवार की परंपरागत सीट है। इसी छपरौली से चौधरी चरण सिंह ने राजनीति की शुरूआत की। वह 6 बार यहां से विधायक बने थे। पहले मुख्यमंत्री और फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। वर्ष 1937 से 1977 तक चौधरी चरण सिंह छपरौली से लगातार विधायक बने। उनके बाद बीकेडी, लोकदल, जनता पार्टी, भकिकापा और आरएलडी ने यहां जिसे भी टिकट दिया, उसे जनता ने सीधे विधानसभा भेजा है। इस सीट ने कभी चौधरी परिवार को निराश नहीं किया। करीब 84 साल से यही छपरौली आरएलडी का किला है। 2017 के विधानसभा चुनाव में आरएलडी सबसे बुरे दौर में था लेकिन छपरौली सीट पर फतह हासिल की।

छपरौली सीट पर किसी लहर का कोई असर नहीं पड़ता
देश में इमरजेंसी का दौर रहा हो या इमरजेंसी के बाद कांग्रेस की लहर, राम मंदिर लहर हो या फिर मोदी लहर, छपरौली विधानसभा क्षेत्र पर इन सबका कोई असर नहीं पड़ता। चौधरी चरण सिंह, चौधरी अजीत सिंह और जयंत चौधरी ने जिस किसी को भी अपना टिकट देकर छपरौली विधानसभा क्षेत्र से मैदान में उतारा, उसे केवल कामयाबी ही हाथ लगी है। प्रधानमंत्री रहते इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, चंद्रशेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह और उत्तर प्रदेश के तमाम मुख्यमंत्री इस विधानसभा क्षेत्र का दौरा करके यहां अपने उम्मीदवारों को जिताने की कोशिश करते रहे हैं।

बागपत लोकसभा सीट पर दो बार से हार का सामना
वेस्ट यूपी की सबसे महत्वपूर्ण जाट बाहुल्य बागपत लोकसभा सीट पर भी चौधरी परिवार का दबदबा रहा है। हालांकि, चौधरी अजित सिंह का राजनीतिक कैरियर जितना आगे बढ़ता गया, वह बागपत लोकसभा क्षेत्र से अपनी पकड़ उतनी ही ढीली करते गए। अपने पूरे पॉलीटिकल करियर में चौधरी अजित सिंह को तीन बार बागपत लोकसभा क्षेत्र से हार का सामना करना पड़ा है। सबसे पहले वह वर्ष 1998 में सोमपाल शास्त्री के सामने चुनाव हार गए थे। इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में भी अजित सिंह को भारतीय जनता पार्टी के हाथों हारना पड़ा है। पिछले यानी 2019 के लोकसभा चुनाव में अजित सिंह ने जयंत चौधरी को बागपत सीट से उतारा और खुद चुनाव लड़ने मुजफ्फरनगर चले गए। यह रद्दोबदल भी काम नहीं आई और जयंत चौधरी बागपत से चुनाव हार गए। चौधरी अजीत सिंह भी मुजफ्फरनगर से चुनाव हारे। भले ही यहां भाजपा के सत्यपाल सिंह ने जीत दर्ज की हो लेकिन यह क्षेत्र आरएलडी का किला है। रस्म पगड़ी के बहाने आरएलडी 2022 के लिए एक संदेश देना चाहती है। 1967 में बागपत में पहली लोकसभा चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार आरएस शास्त्री सांसद बने थे। 1971 में कांग्रेस के रामचंद्र विकल सांसद बने।

1977 में बागपत में समीकरण बदले और भारतीय लोकदल से चौधरी चरण सिंह सांसद बने। 1980 और 1984 में भी चरण सिंह बागपत से सांसद थे। इसके बाद चौधरी चरण सिंह की मृत्यु हो गई और 1989 में जनता दल से चौधरी चरण सिंह के बेटे अजित सिंह सांसद बने। 1991 और 1996 में भी अजित सिंह ने इसी लोकसभा सीट से जीत दर्ज की थी।

वर्ष 1998 में पहली बार BJP से सोमपाल शास्त्री लोकसभा का चुनाव जीते थे लेकिन महज एक साल बाद 1999 के मध्यावधि लोकसभा चुनाव में अजित सिंह फिर से बागपत के सांसद बने। वर्ष 2004 और 2009 में भी अजित सिंह बागपत से सांसद चुने गए थे। वर्ष 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगे के बाद अजित सिंह को 2014 के लोकसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था।

दरअसल, चौधरी अजित सिंह के राजनीतिक समीकरण में जहां जाट मतदाताओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा, वहीं मुस्लिम मतदाताओं के बिना चौधरी उनकी राजनीति अधूरी थी। चौधरी अजित सिंह और उनका संगठन राष्ट्रीय लोकदल जाटों और मुस्लिमों को साधकर चल रहा था। मुजफ्फरनगर दंगों के कारण चौधरी अजित सिंह पर दो तरफा आरोप लगे। एक और उन पर आरोप लगा कि वह जाटों को छोड़कर मुसलमानों की तरफदारी करते नजर आए। दूसरी और मुसलमानों ने उन पर आरोप लगाया कि जब हिंसा हुई तो चौधरी अजित सिंह दिल्ली में चुपचाप बैठ कर खून खराबा देखते रहे। लिहाजा, 2014 के विधानसभा चुनाव में ना केवल मुसलमान बल्कि बड़ी संख्या में जाटों ने भी चौधरी अजीत सिंह का साथ छोड़ दिया। जिसका परिणाम उन्हें करारी हार के रूप में देखना पड़ा। भाजपा उम्मीदवार सत्यपाल सिंह 60 साल तक महाराष्ट्र में नौकरी करके आए और चुनाव जीत गए। अब जयंत चौधरी के सामने इस खोई हुई विरासत को ही वापस हासिल करना सबसे बड़ा लक्ष्य है।

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