New Delhi : सुप्रीम कोर्ट ने यमुना एक्सप्रेसवे औद्योगिक विकास प्राधिकरण (YEIDA) द्वारा की गई भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया को सही ठहराते हुए महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया। न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की खंडपीठ ने इस मामले में उच्च न्यायालय के दो विरोधाभासी के निर्णयों पर एकीकृत दृष्टिकोण अपनाया और “कालीचरण बनाम उत्तर प्रदेश राज्य” मामले को इस निर्णय का आधार बनाया है। इससे यमुना अथॉरिटी की विकास योजनाओं को बल मिल गया है।
क्या है पूरा मामला
इस मामले की शुरुआत उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा फरवरी 2009 में गौतमबुद्ध नगर जिले के यमुना अथॉरिटी के दायरे वाले गांवों में भूमि अधिग्रहण से हुई। यमुना प्राधिकरण के लिए पुराने भूमि अधिग्रहण कानून के आपातकालीन प्रावधानों (धारा 17(1) और 17(4)) का उपयोग करते हुए जिला प्रशासन ने अधिसूचना जारी की थी। इस भूमि का उपयोग यमुना एक्सप्रेसवे और इसके आसपास के क्षेत्र के योजनाबद्ध विकास के लिए किया जाना था। भूमि मालिकों ने इस अधिग्रहण को चुनौती देते हुए कहा कि सरकार ने उनकी आपत्तियां सुने बिना ही भूमि का अधिग्रहण किया, जिससे उनके अधिकारों का हनन हुआ।
विवाद की वजह क्या थी
आपातकालीन प्रावधानों का दुरुपयोग: भूमि मालिकों ने तर्क दिया कि सरकार ने धारा 5-ए के तहत उनकी आपत्तियां सुनने का अधिकार निलंबित कर दिया, जबकि वास्तविक आपातकालीन स्थिति नहीं थी।
जनहित बनाम निजी विकास: यह तर्क दिया गया कि भूमि अधिग्रहण का उद्देश्य सार्वजनिक हित के बजाय वाणिज्यिक और आवासीय परियोजनाओं के लिए था।
अधिग्रहण प्रक्रिया में देरी: अधिसूचना और अंतिम घोषणाओं के बीच लंबा समय अंतराल, आपात स्थिति की कमी का संकेत माना गया। पुराने कानून के मुताबिक, यह समयावधि एक वर्ष से अधिक नहीं होनी चाहिए।
अब सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया
अधिग्रहण की वैधता : अदालत ने यह माना कि यह परियोजना इंटीग्रेटेड विकास योजना का हिस्सा थी, जिसमें यमुना एक्सप्रेसवे के साथ औद्योगिक, आवासीय और वाणिज्यिक क्षेत्रों का विकास शामिल था।
आपातकालीन प्रावधानों का उपयोग : अदालत ने कहा कि परियोजना की विशालता और संभावित देरी के कारण आपातकालीन प्रावधानों का उपयोग न्यायोचित था। न्यायालय ने कहा कि इतनी बड़ी संख्या (12,868) में भूमि मालिकों की आपत्तियों को सुनना परियोजना में बाधा उत्पन्न कर सकता था।
न्यायिक समीक्षा का दायरा : न्यायालय ने दोहराया कि सरकार की “प्रशासनिक संतोष” पर केवल सीमित न्यायिक समीक्षा की जा सकती है, और इस मामले में सरकार ने आवश्यक प्रक्रियाओं का पालन किया था।
मुआवजा का निर्धारण : अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालय द्वारा तय किया गया 64.7% अतिरिक्त मुआवजा न्यायसंगत है और इसे सभी प्रभावित भूमि मालिकों पर लागू किया जाना चाहिए।
अदालत ने कहा
"श्योराज सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय “राधेश्याम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के संदर्भ में गलत था। राधेश्याम मामले का भूमि अधिग्रहण केवल औद्योगिक विकास तक सीमित था, जबकि यमुना एक्सप्रेसवे परियोजना एकीकृत और बहुउद्देश्यीय विकास को शामिल करती है।" आगे 'नंद किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य' के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भूमि अधिग्रहण का उद्देश्य सार्वजनिक हित में था और यह कानूनी दृष्टि से सही है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अधिकांश भूमि मालिकों ने मुआवजा स्वीकार कर लिया है और केवल 140 अपीलकर्ताओं ने इसे चुनौती दी। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि परियोजना का व्यापक जनहित के साथ गहरा संबंध है और इसे रोका नहीं जा सकता। कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट ने सभी 140 किसानों की याचिकाओं को ख़ारिज कर दिया है।
यमुना प्राधिकरण को बड़ी राहत
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने यमुना अथॉरिटी को बड़ी राहत दी है। इस फैसले ने एक तरफ सरकार की विकास परियोजनाओं को बल दिया है, वहीं भूमि मालिकों को उचित मुआवजा देकर उनके हितों की रक्षा भी सुनिश्चित की है। यह फैसला भविष्य में भूमि अधिग्रहण से जुड़े विवादों में मील का पत्थर साबित होगा।