किसानों को जमींदारों से मुक्ति दिलाने के लिए बर्खास्त कर दिए थे 27 हजार पटवारी, सरकार छोड़ने से भी नहीं झिझके

Chaudhary Charan Singh : किसानों को जमींदारों से मुक्ति दिलाने के लिए बर्खास्त कर दिए थे 27 हजार पटवारी, सरकार छोड़ने से भी नहीं झिझके

किसानों को जमींदारों से मुक्ति दिलाने के लिए बर्खास्त कर दिए थे 27 हजार पटवारी, सरकार छोड़ने से भी नहीं झिझके

Tricity Today | चौधरी चरण सिंह

Chaudhary Charan Singh death Anniversary Special : पहले भाग में आपने पढ़ा चौधरी चरण सिंह पेशेवर, सामाजिक और राजनीतिक जीवन में तेजी से आगे बढ़ रहे थे। वह करीब 37 साल की उम्र में वर्ष 1939 का असेंबली चुनाव जीत गए थे। मेरठ जिले से ऊपर उठकर राज्य स्तर के नेता बनने की ओर बढ़ चुके थे। बहुत जल्दी उनकी बड़ी क्षमता और मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति नजर आने लगी। करीब सवा दो साल के इस कार्यकाल में चरण सिंह ने बतौर असेंबली मेंबर कई बड़े काम किए। देश भले ही आजाद नहीं था लेकिन उनके ख़्यालात आज़ाद हो चुके थे।

Union Home Minister (1977)
बड़ी शुरुआत की : 
चरण सिंह ने खाद्यान्न डीलरों और व्यापारियों की क्रूरता के खिलाफ आवाज उठाई। किसान हितों की रक्षा के लिए एक प्राइवेट बिल ‘कृषि उपज बाजार विधेयक’ यूपी विधान सभा में पेश किया। उन्हें निहित स्वार्थों के चलते कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। यह बिल यूनाइटेड प्रोविंस में भले ही लागू नहीं हो पाया लेकिन पंजाब सरकार ने 1940 में चरण सिंह के मसौदे को आधार बनाकर मंडी समिति अधिनियम पारित किया था।

गांव-किसान पर फोकस : उन्होंने पुलिस और सिविल सेवाओं में किसान परिवारों के युवकों के लिए 50 फीसदी कोटा मांगा। 5 अप्रैल 1939 को कांग्रेस विधायक दल की कार्यसमिति के समक्ष यह प्रस्ताव रखा गया था। हालाँकि, इसे पार्टी ने स्वीकार नहीं किया। जमींदारी उन्मूलन के मुद्दे को उठाया। उन्होंने एक बिल पेश किया। जिसके मुताबिक जो किसान उस वक्त जिस जमीन पर खेती कर रहा था, वह उसके वार्षिक किराये की 10 गुना राशि का भुगतान करके जमीन का मालिक बन सकता था।

Boat CLub Kisan Rally (1978)

वेस्ट यूपी की राजनीति पर पकड़ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार डॉ.कुलदीप त्यागी का कहना है, "चौधरी चरण सिंह किसानों को आर्थिक रूप से मजबूत बनाना चाहते थे। उनकी प्राथमिकता में गांव और कुटीर उद्योग थे। उनका मानना था कि अगर गांव की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी तो देश तेजी के साथ तरक्की करेगा। अगर गांव और किसान बदहाली में रहेंगे तो देश भी कभी आगे नहीं बढ़ पाएगा। यही वजह थी कि वह हमेशा खेती-बाड़ी किसान गांव और मजदूर के पक्ष में खड़े रहे।"

स्वभाविक रूप से बिल को जमींदारों के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। वह बिल भी विधानसभा में नहीं रखा जा सका। उन्होंने कांग्रेस विधायक दल के सामने एक और प्रस्ताव रखा था। शैक्षणिक संस्थान या किसी सरकारी सेवा में प्रवेश करते वक्त अनुसूचित जातियों को छोड़कर किसी भी हिंदू की जाति के बारे में नहीं पूछा जाना चाहिए।

छपरौली से पांच बार विधायक रहे और किसान ट्रस्ट के ट्रस्टी नरेंद्र सिंह चौहान कहते हैं, "चौधरी साहब के मन में युवावस्था से ही किसानों की दशा सुधारने का सपना पल रहा था। जब वह सरकार में ताकतवर बने तो उन्होंने ना केवल किसानों को जमीनों पर मालिकाना और कानूनी हक दिया, बल्कि किसानों की आर्थिक दशा सुधारने की पुरजोर कोशिश की। साहूकारों और जमीदारों का कृषि भूमि से अधिपत्य समाप्त किया। उत्तर प्रदेश के किसान आज देश के दूसरे राज्यों से आगे हैं तो इस उपलब्धि की नींव चौधरी साहब की मेहनत पर रखी हुई है।"

 Union Home Minister 3 (1977)

उस वक्त किसान और खेतीहर मजदूर साहूकारों के चंगुल में फंसे थे। चरण सिंह ने किसानों को साहूकारों और कर्ज के चंगुल से मुक्त करने के लिए ‘कृषक और कामगार ऋण मोचन विधेयक’ लाने में प्रमुख भूमिका निभाई। किसानों की सम्पत्तियों की सार्वजनिक नीलामी पर पाबंदी लगा दी गई।

आजादी के लिए लड़ाई : 2 नवंबर 1939 को कांग्रेस सरकार ने इस्तीफा दे दिया और चरण सिंह गाजियाबाद से मेरठ चले गए। वह 1946 तक मेरठ जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष और महासचिव रहे। उन्होंने इस दौरान खुद को किसान हितों के प्रवक्ता के रूप में स्थापित किया।

यह वह वक्त था जब देश में अंग्रेजों के खिलाफ गाँधीवादी आंदोलन चरम पर था। चरण सिंह को सत्याग्रह के दौरान गिरफ्तार कर लिया गया। एक साल के लिए दूसरी बार जेल गए। पहले मेरठ और फिर बरेली सेंट्रल जेल में रहे। अक्टूबर 1941 में रिहा किये गए। बच्चों में अच्छे विचारों को रोपने के लिए जेल से पत्रों की श्रृंखला “शिष्टाचार” लिखी। फिर "भारत छोडो आंदोलन" में कूद पड़े। गाज़ियाबाद, हापुड़, मवाना, सरधना और बुलंदशहर के इलाकों में भूमिगत आंदोलन का नेतृत्व किया। अंततः 23 अक्टूबर 1942 को फिर गिरफ्तार कर लिए गए। नवम्बर 1943 तक तीसरी बार जेल में रहे।

(BSF Jullundur CCS Parkash S Badal 7 (25-Sept-1977)

वकालत से मोहभंग : जेल से रिहा होने के बाद एकबार फिर वकालत शुरू कर दी। लेकिन वकालत बहुत अच्छी नहीं चली, क्योंकि वह जिन लोगों को झूठा और फर्जी समझते थे, उनके केस नहीं लेते थे। परिश्रम और गरीबी की जिंदगी जीते रहे। वह कहते थे, ‘वकील होना मेरी मजबूरी है, यह काम मेरी पसंद नहीं है। बिना वजह फायदों के लिए झूठ बोलना पड़ता है।’

जमींदारी खात्मे की नींव : वर्ष 1945 में आचार्य नरेंद्र देव की अध्यक्षता में बनारस में किसानों की मीटिंग हुई। इस मीटिंग के बाद कांग्रेस के घोषणा-पत्र में जमींदारी उन्मूलन के लिए एक मसौदा शामिल किया गया था। जो दिसंबर में अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यकारिणी की मीटिंग में पारित हो गया। इसी दौरान उन्होंने किसानों और खेतिहरों को सरकारी नौकरियों में बढ़ावा देने का प्रस्ताव रखा लेकिन प्रस्ताव को ना तो कांग्रेस और ना ही सरकार का समर्थन मिल पाया। नरेंद्र सिंह चौहान कहते हैं, "चौधरी चरण सिंह गोविंद बल्लभ पंत के बेहद निकट थे। पंत जी चौधरी साहब पर बहुत भरोसा करते थे। यही वजह थी कि उन्हें पंत जी ने अपने कार्यकाल में किसान हितों के लिए काम करने की पूरी स्वतंत्रता दी। वर्ष 1981 में दिल्ली में एक भाषण के दौरान चौधरी साहब ने पंत जी को पिता समान कहते हुए 1946 से 1954 तक के 8 वर्षों को अपना स्वर्णकाल बताया था।"

पैसे वालों से दूरी : वर्ष 1946 में गोविंदबल्लभ पंत एकबार फिर संयुक्त प्रान्त के प्रीमियर मुख्यमंत्री चुने गए। चरण सिंह भी दूसरी बार मेरठ से चुनाव जीतकर असेमबली पहुंच गए। उन्होंने आम जनता से पैसे लेकर चुनाव लड़ा। उद्योगपतियों और अमीरों से कोई पैसा नहीं लेते थे। अपने पूरे राजनितिक जीवन में वह इस आदर्श पर कायम रहे। उनके साथ बेहद नजदीकी से काम करने वाले छपरौली के पूर्व विधायक नरेंद्र सिंह चौहान और बुलंदशहर से पूर्व शिक्षामंत्री किरनपाल सिंह को ऐसे कई संस्मरण याद हैं।

Charan Singh at Work (1978)

बुलंदशहर की अगौता विधानसभा सीट से लोकदल के विधायक रहे और बाद में मुलायम सिंह यादव सरकार में यूपी के शिक्षा मंत्री रह चुके किरणपाल सिंह कहते हैं, "चौधरी चरण सिंह दिन-रात किसान हितों के लिए सोचते थे और काम करते थे। यही वजह थी कि उन्होंने कभी उद्योगपतियों और अमीरों से पार्टी चलाने या चुनाव लड़ने के लिए पैसा नहीं लिया। वह कहते थे कि अगर मैं उद्योगपतियों से पैसा लूंगा तो किसान हितों की बजाए अमीरों के हित में कानून बनाऊंगा। उन्होंने कभी चुनावी और पार्टी की राजनीति में पैसे वालों को घुसने नहीं दिया था।"

नई शुरुआत की : आखिरकार 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ। आजादी के बाद यूनाइटेड प्रोविंस का नाम उत्तर प्रदेश हो गया। गोविन्द बल्लभ पंत की कांग्रेस सरकार में चरण सिंह संसदीय सचिव नियुक्त किये गए। सरकार में 6 मंत्री थे। लाल बहादुर शास्त्री, चन्द्रभानु गुप्त और चरण सिंह सहित 12 संसदीय सचिव थे। चरण सिंह 1951 तक स्वास्थ्य मंत्री, स्थानीय निकाय और प्रीमियर के संसदीय सचिव रहे। इसी दौरान ‘यूपी काश्तकारी अधिनियम’ में संशोधन किया और 1 जनवरी 1940 से बेदखल किये गए सभी काश्तकारों को बहाल करवाया। जिससे लाखों किसानों को लाभ मिला।

न्याय मंत्री बन गए : 4 जून 1951 का दिन चरण सिंह के राजनीतिक जीवन में बड़ा महत्वपूर्ण साबित हुआ। वह उत्तर प्रदेश के न्याय और सूचना मंत्री बन गए। 8 अगस्त 1951 को उन्हें कृषि और पशु पालन विभाग का भी जिम्मा दे दिया गया था। अब तक चरण सिंह एक मजबूत नेता के रूप में उभर चुके थे। उन्हें 20 मई 1952 को राजस्व मंत्री नियुक्त कर दिया गया। यही वह कामयाबी थी, जिसका उन्हें बरसों से इन्तजार था।

CCS Chandrashekhar (1981) 

जमींदारी खात्मा किया : चरण सिंह ने ‘उत्तर प्रदेश ज़मींदरी एवं भूमि सुधार विधेयक’ पारित कराया। यही उनका सपना था, जो साकार हो चुका था। जिसने उन्हें गांवों और किसानों के प्रतिनिधि के रूप में मजबूती से स्थापित कर दिया। और अब चरण सिंह वाकई चौधरी चरण सिंह बन चुके थे। इस कानून को उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि माना जाता है। कानून को गांवों में लागू करवाने के लिए उन्होंने सारे राज्य के तूफानी दौरे किये। विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में, जहाँ जमींदारी प्रथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अपेक्षा व्यापक रूप से मौजूद थी और शोषणकारी थी। इस बदलाव को आज भी यूपी के किसान 'जमींदारी खात्मा' बोलते हैं।

पटवारी युग समाप्त
चौधरी चरण सिंह के जीवन से जुड़ी एक घटना यूपी के गांवों में सुनी जा सकती है। उस वक्त राजस्व विभाग में पटवारियों का दबदबा था। गांवों में पटवारियों को जमींदारों से भी ऊपर ताकत हासिल थी। जब जमींदारी खात्मा हुआ तो अपनी सेवा शर्तों को लेकर पटवारियों ने सरकार पर दबाव बनाने के लिए राज्यव्यापी आंदोलन शुरू कर दिया। यह ज़मींदारों का प्रायोजित आंदोलन था। चरण सिंह ने उनकी मांगों को मानाने से इंकार कर दिया और सभी 27,000 पटवारियों की सेवाएं समाप्त कर दीं। उन्होंने पटवारियों की जगह लेखपालों का पद सृजित किया, उसे गांवों में चुनी हुई ग्राम सभाओं के प्रति जवाबदेह बनाया।

दलितों को हक दिया : वह पिछड़ों और दलितों को समाज में बराबरी का दर्जा देने के लिए हमेशा प्रायसरत रहे। यह अच्छा मौक़ा था। उन्होंने लेखपालों के पदों पर 18% अनुसूचित जाति के लोगों की नियुक्ति करने का आदेश दिया। हालांकि, शिक्षा के अभाव में अनुसूचित जाति से मात्र 5% ही लेखपाल भर्ती किये जा सके थे।

44 UP Minister (1950)

पंडित नेहरू को पत्र : 
चरण सिंह अपने सुधारवादी अभियान में यहीं नहीं रुके। उन्होंने हिन्दू समाज में जाति क्रम को ध्वस्त करने की दिशा में कदम बढ़ाया। राजपत्रित अधिकारियों के लिए अंतर्जातीय विवाह अनिवार्य करने करने की मांग करते हुए 22 मई 1954 को पंडित नेहरू को एक पत्र लिखा था।

जीवन में संघर्ष शुरु : चरण सिंह के लिए पिता समान जीबी पंत 27 दिसंबर 1954 को केन्द्रीय गृहमंत्री बनकर दिल्ली चले गए। यहीं से उनके जीवन में संघर्ष की शुरुआत हो गई थी। चरण सिंह के जीवन पर अध्ययन करने वाले लेखक पॉल आर ब्रास अपनी किताब 'एन इंडियन पॉलिटिकल लाइफ' में लिखते हैं, "पंत जी के केंद्र में जाने के बाद चरण सिंह ने दोनों मंत्रालयों और नीतियों से नियंत्रण खो दिया था।" 

विभागों में बार-बार बदलाव : उत्तर प्रदेश की कमान डॉ.सम्पूर्णानन्द के हाथों में आ गई थी। उन्होंने चरण सिंह को राजस्व और परिवहन मंत्री नियुक्त किया। तभी योजना आयोग की सिफारिश आई कि काश्तकारों से जमीन लेकर ज़मींदारों को वापस दे दी जाए। चरण सिंह ने इस अनुशंसा को मानने से इंकार कर दिया। चरण सिंह के विभागों में बार-बार बदलाव किए गए।

नेहरू की खुली खिलाफत : जनवरी 1959 में नागपुर में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का 64वां अधिवेशन था। अब तक चरण सिंह प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की नीतियों के मुखर विरोधी बन चुके थे। चरण सिंह ने सहकारी खेती के विरुद्ध एक घंटे लम्बा बेहद आक्रामक भाषण दिया। जिसमें उन्होंने सहकारी खेती को भारतीय स्थितियों के लिए प्रतिकूल बताया। उनके जोशीले भाषण का तो जोरदार स्वागत हुआ, लेकिन फिर भी सहकारी कृषि के पक्ष में प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हो गया। चरण सिंह को 'प्रतिक्रियावादी' माना गया। इसने चरण सिंह को उनके कुछ मतदाताओं के बीच तो लोकप्रिय बना दिया किन्तु उन्हें नेहरू और कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के निशाने पर लाकर खड़ा कर दिया था।

Wagah CCS Devi Lal PS Badal 13 (1997)

नरेंद्र सिंह चौहान कहते हैं, "चौधरी चरण सिंह, पंडित नेहरू और मिसेज गांधी का बहुत सम्मान करते थे। कांग्रेस छोड़ने के बावजूद उन्होंने कई बार भाषाओं में पंडित जवाहरलाल नेहरू का जिक्र किया और उन्हें अपना नेता कहकर संबोधित करते थे। भिंडरवाला मामले के दौरान चौधरी चरण सिंह ने इंदिरा गांधी का खुलकर साथ दिया था। उन्होंने संसद में भी भिंडरवाला के खिलाफ बयान दिया था। पंडित जवाहरलाल नेहरू से उनका मतभेद केवल गांधीवादी अर्थव्यवस्था को दरकिनार करने के कारण था। चौधरी साहब गांव किसान और खेती का विकास गांधीवादी सिद्धांतों पर चाहते थे। वह नेहरू जी के आर्थिक सिद्धांतों के कट्टर आलोचक थे।"

पहली बगावत : धीरे-धीरे वक्त बीत रहा था। दूसरी तरफ चरण सिंह के मन में 1954 से एक आग धधक रही थी। उन्होंने 22 अप्रैल 1959 को मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया। वर्ष 1937 के बाद वह पहली बार 19 माह के लिए दिसंबर 1960 तक सरकार से बाहर रहे। इसी बीच यूपी में नेतृत्व परिवर्तन हुआ। सम्पूर्णानन्द की जगह चन्द्रभानु गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाया गया। चरण सिंह 7 दिसम्बर 1960 को सीबी गुप्ता मंत्रिमंडल में बतौर गृह एवं कृषि मंत्री शामिल हो गए। लेकिन यूपी की राजनीति में चरण सिंह और चन्द्रभानु गुप्ता ध्रुव विरोधी थे। मतभेदों के चलते 13 मार्च 1962 को चरण सिंह से गृह विभाग वापस ले लिया गया।



रोकने की कोशिश : चरण सिंह ने 21 अप्रैल 1962 को लखनऊ में पॉल ब्रास के साथ साक्षात्कार में कहा था, "कृषि मंत्रालय एक अत्यन्त कटा-छटा विभाग है। कतर-ब्योंत की प्रक्रिया पंत जी के समय में ही आरम्भ हो गई थी। सम्पूर्णानन्द और गुप्ता, दोनों के शासनकाल में जारी रही।" यूपी में फिर बदलाव हुआ और सुचेता कृपलानी सीएम बने। चरण सिंह उनकी कैबिनेट में कृषि, पशुपालन, मत्स्य एवं वन मंत्री के रूप में शामिल हुए। तमाम गतिरोध के बावजूद चरण सिंह ने अपने कामकाज पर कभी असर नहीं पड़ने दिया। उन्होंने इस कार्यकाल में "उत्तर प्रदेश भूमि एवं जल संरक्षण अधिनियम 1963" तैयार किया। किरनपाल सिंह कहते हैं कि वह हमेशा पढ़ते-लिखते रहते थे। पत्राचार करने के माहिर थे।

किरणपाल सिंह कहते हैं कि चौधरी साहब गांव की तरक्की चाहते थे, लेकिन शहर की तरक्की के खिलाफ नहीं थे। उनकी फिलॉसफी बड़ी साफ थी। वह कहते थे कि अगर गांव वालों के पास पैसा होगा तो उनकी परचेसिंग पावर बढ़ेगी। वह शहर से सामान खरीदने जाएंगे। जिससे शहरी अर्थव्यवस्था भी बढ़ेगी। लिहाजा, सबसे पहले गांव में किसान मजदूर और गरीब की जेब में पैसा डालना जरूरी है। किरणपाल सिंह आगे कहते हैं कि चौधरी चरण सिंह अक्सर बैठकों में कहते थे कि जिन क्षेत्रों में गांव वाले आर्थिक रूप से मजबूत हैं, वहां आसपास के शहरों में रोनक और चमक होती है जिन गांवों में पैसा नहीं होता वहां के शहर भी बेनूर होते हैं।

राजस्व व कृषि विभाग हटे : चरण सिंह से उनका पसंदीदा राजस्व मंत्रालय तो पहले ही ले लिया गया था, 14 मई 1965 को कृषि मंत्रालय भी वापस ले लिया गया। वह 13 मार्च 1967 तक कैबिनेट में बतौर स्थानीय निकाय और वन मंत्री बने रहे। वह जिस मंत्रालय में जाते वहां सुधार करने लगते और कर्मचारियों की हड़ताल शुरू हो जाती थीं। चरण सिंह सरकार में सरमाएदारों के दखल और नौकरशाही में बढ़ रहे भ्रष्टाचार से लड़ रहे थे। उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था, "आज लोकजीवन का स्तर काफी गिर गया है। कोई मानक नहीं बचा है। अब अधिकांश लोगों की राय में लोक दायित्व के कार्यालय लाभ एवं स्वयं की उन्नति के स्रोत हैं। यदि यह स्थिति बिना किसी रोकथाम के जारी रहती हैं तो उत्तर प्रदेश असाध्य रूप से गर्त में चला जायेगा।"



डॉ.कुलदीप त्यागी कहते हैं कि चौधरी चरण सिंह अपने उसूलों के पक्के थे। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि वह कांग्रेस, इंदिरा गांधी या पंडित जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ बोलेंगे तो उससे उन्हें कितना नुकसान उठाना पड़ेगा। वह कांग्रेस में रहे तो उन्होंने नेहरू और इंदिरा का विरोध किया। कांग्रस से बाहर रहे तो इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ खड़े रहे।

कांग्रेस में चल रहा यह द्वंद्व कैसे खत्म हुआ? उन्होंने अपनी पार्टी से 38 वर्ष लम्बा रिश्ता कैसे तोड़ा? और कैसे दो-दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने में कामयाब हुए? यह सब अगले भाग में जानेंगे।

(लेखक पंकज पाराशर बागपत के मूल निवासी हैं और उत्तर प्रदेश की राजनीति के विश्लेषक हैं।)
 

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