भगवान शंकर का वह मंदिर जहां परशुराम ने लिया था सहस्रबाहु के विनाश का प्रण, जानिए पौराणिक महत्व

भगवान शंकर का वह मंदिर जहां परशुराम ने लिया था सहस्रबाहु के विनाश का प्रण, जानिए पौराणिक महत्व

भगवान शंकर का वह मंदिर जहां परशुराम ने लिया था सहस्रबाहु के विनाश का प्रण, जानिए पौराणिक महत्व

Google Image | पुरामहादेव मंदिर

उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में स्थित है यह पौराणिक मंदिरgangaपरशुराम ने यहां तपस्या कर भगवान आशुतोष को प्रसन्न किया थाgangaभगवान शंकर ने प्रसन्न होकर परशुराम को दो वरदान दिए थे gangaएक वरदान में उन्होंने अपनी मां रेणुका को पुनर्जीवित किया था gangaदूसरे वरदान में हस्तिनापुर के राजा सहस्रबाहु पर विजय मांगी

आज से श्रावण का महीना शुरु हो गया है। यह हिंदू धर्म के लिए पवित्र महीना है। पूरे महीने भगवान आशुतोष की पूजा अर्चना और ध्यान में भक्त समय व्यतीत करेंगे। ऐसे में ट्राइसिटी टुडे ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली-एनसीआर के प्रमुख मंदिरों से जुड़ी मान्यताओं और इतिहास को अपने पाठकों के सामने रखने का निर्णय लिया है। इन मंदिरों पर प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं। पूजा-पाठ और मान्यताओं के आधार पर जप-तप करते हैं। 

हम अगले 30 दिनों तक रोजाना आपको एक सिद्ध पीठ और प्रसिद्ध शिव मंदिर  के बारे में विस्तृत जानकारी देंगे। आज इसी श्रंखला में सबसे पहले पुरा महादेव मंदिर के बारे में हम आपको बता रहे हैं। इस साल कोरोना वायरस के चलते कावड़ यात्रा पर सरकार ने प्रतिबंध लगाया है। हरिद्वार से शुरू होने वाली कावड़ यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव पुरा महादेव मंदिर ही है।

पुरामहादेव मन्दिर, जिसे परशुरामेश्वर महादेव भी कहते हैं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में है। मेरठ-बागपत स्टेट हाइवे पर बालौनी कस्बे से करीब साढ़े चार किलोमीटर दूर एक छोटा से गांव में है। यह एक प्राचीन मंदिर है। शिवभक्तों की श्रध्दा का बड़ा केन्द्र है। इसे एक प्राचीन सिध्दपीठ माना गया है। केवल इस क्षेत्र के लिए ही नहीं पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान तक इसकी मान्यता है। प्रत्येक वर्ष लाखों शिवभक्त श्रावण और फाल्गुन माह में पैदल हरिद्वार से कांवड़ में गंगा का पवित्र जल लेकर चलते हैं। यहां परशुरामेश्वर महादेव मन्दिर में भगवान शिव का रुद्राभिषेक करते हैं। यह मंदिर मेरठ से 36 किलोमीटर और बागपत से 30 किलोमीटर दूर है।

यहां पौराणिक काल में कजरी वन होता था
मंदिर के प्रधान पुजारी जय भगवान शर्मा बताते हैं, जहां पर परशुरामेश्वर पुरामहादेव मंदिर है, वहां द्वापर और त्रेता काल में कजरी वन हुआ करता था। इसी वन में सप्त ऋषि मंडल के महर्षि जमदग्नि अपनी पत्नी रेणुका के साथ अपने आश्रम में रहते थे। रेणुका प्रतिदिन कच्चा घड़ा बनाकर हिंडन नदी से जल भर कर लाती थीं। वह जल शिव को अर्पण किया करती थीं। हिंडन नदी को पुराणों में पंचतीर्थी कहा गया है। हरनन्दी नदी के नाम से भी विख्यात है। यह पौराणिक नदी सहारनपुर में गागलहेड़ी से शुरू होकर गौतम बुध नगर में मोमना थल गांव के पास यमुना नदी से संगम करती है। हिंडन नदी पुरा महादेव मंदिर के समीप से गुजरती है।

महर्षि जमदग्नि के आश्रम से उनकी पत्नी को उठा ले गया था राजा सहस्रबाहु
पौराणिक कथाओं और इस पूरे क्षेत्र में प्रचलित किंवदंतियों के मुताबिक प्राचीन समय में एक बार राजा सहस्त्रबाहु शिकार खेलते हुए महर्षि जमदग्नि के आश्रम में पहुंच गया था। ऋषि की अनुपस्थिति में उनकी पत्नी रेणुका ने कामधोनु गाय की कृपा से राजा का आदर सत्कार किया। राजा उस अद्भुत गाय को देखकर लालची हो गया। आपको बता दें कि प्राचीन काल में मुद्रा के स्थान पर गाय ही व्यापार का माध्यम होती थीं। सेक्स बाबू महर्षि जमदग्नि की कामधेनु गाय को बलपूर्वक वहां से ले जाना चाहता था। परन्तु वह ऐसा करने में सफल नहीं हो सका। राजा गुस्से में रेणुका को ही बलपूर्वक अपने साथ हस्तिनापुर अपने महल में ले गया। उन्हें एक कमरे में बन्द कर दिया। 

महर्षि जमदग्नि ने रेणुका को अपनाने से इंकार कर दिया
जय भगवान शर्मा कहते हैं कि पौराणिक कथाओं के अनुसार, राजा सहस्रबाहु की रानी ने अवसर पाते ही अपनी छोटी बहन के माध्यम से रेणुका को मुक्त कर दिया। रेणुका ने वापस आश्रम पहुंचीं। उन्होंने महर्षि को सारा वृतान्त सुनाया। महर्षि ने एक रात्रि दूसरे पुरूष के महल में रहने के कारण रेणुका को आश्रम छोड़ने का आदेश दे दिया। रेणुका ने महर्षि जमदग्नि से बार-बार प्रार्थना की कि वह पूर्ण पवित्र हैं। वह आश्रम छोड़कर नहीं जाना चाहती हैं। अगर उन्हें विश्वास नहीं है तो वह अपने हाथों से उसे मार दें। जिससे पति के हाथों मरकर वह मोक्ष को प्राप्त हो जाएंगी। लेकिन महर्षि जमदग्नि अपने आदेश पर अडिग रहे।

महऋषि ने अपने पुत्रों को रेणुका का सिर काटने का आदेश दिया
तत्पश्चात् ऋषि ने अपने तीन पुत्रों को उनकी माता का सिर धड़ से अलग करने का आदेश दिया, लेकिन उनके पुत्रों ने मना कर दिया। चौथे पुत्र परशुराम ने पितृ आज्ञा को अपना धर्म मानते हुए अपनी माता का सिर धड़ से अलग कर दिया। बाद में परशुराम को इसका घोर पश्चाताप हुआ। उन्होंने पिता के आश्रम से थोड़ी दूर पर ही घोर तपस्या करनी आरम्भ कर दी। वहां पर शिवलिंग स्थापित करके उसकी पूजा करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर आशुतोष भगवान शिव ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिए। भगवान शिव ने परशुराम को वरदान मांगने के लिए कहा। भगवान परशुराम ने अपनी माता को पुनर्जीवित करने की प्रार्थना की। भगवान शिव ने उनकी माता को जीवित कर दिया और उन्हें एक परशु (फरसा) भी दिया। कहा जब भी युद्ध के समय इसका प्रयोग करोगे तो विजय होगे।

इसके बाद भगवान परशुराम ने सहस्त्रबाहु का वध किया
पुरा महादेव मंदिर प्रबंधन समिति  के अध्यक्ष  ने बताया कि ऐसी मान्यता है कि परशुराम जी वहीं पास के वन में एक कुटिया बनाकर रहने लगे। थोड़े दिन बाद ही परशुराम ने राजा सहस्रबाहु को युद्ध के लिए ललकारा। उन्होंने अपने फरसे से सम्पूर्ण सेना सहित राजा सहस्त्रबाहु को मार दिया। वह तत्कालीन क्षत्रियों के दुष्कर्मों के कारण बहुत ही क्षुब्ध थे। अतः उन्होंने पृथ्वी पर क्षत्रियों को मृत्यु दण्ड दिया। माना जाता है कि परशुराम ने इक्कीस बार पूरी पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया था। उन्होंने जिस स्थान पर शिवलिंग की स्थापना की थी, वहां एक मंदिर भी बनवा दिया। कालान्तर में मंदिर खंडहरों में बदल गया।

लंढोरा की रानी ने करवाया मंदिर का जीर्णोद्धार
काफी समय बाद लण्डौरा की रानी किसी कारणवश इस इलाके में आई थीं। उनका हाथी वहां आकर रुक गया। महावत की बड़ी कोशिश के बाद भी हाथी वहां से नहीं हिला। रानी को हाथी की हठ पर लगा कि यहां कोई विशेष स्थान है। रानी ने सैनिकों को उस स्थान को खोदने और आसपास के जंगल में तलाश करने का आदेश दिया। खुदाई में वहां एक शिवलिंग प्रकट हुआ। जिस पर रानी ने एक मंदिर बनवा दिया। यही शिवलिंग और इस पर बनाया गया मंदिर आज परशुरामेश्वर मंदिर के नाम से विख्यात है। यह वृत्तांत लंढोरा राजपरिवार के दस्तावेजों में भी दर्ज है।

जगतगुरु शंकराचार्य भी कर चुके हैं यहां आराधना
इसी पवित्र स्थल पर जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी कृष्ण बोध आश्रम जी महाराज ने भी तपस्या की है। उन्हीं की अनुकम्पा से पुरा महादेव महादेव समिति भी गठित की गई थी, जो इस मंदिर का संचालन करती है।

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