Pranab Mukherjee Death: अपनी धुन के पक्के थे प्रणब दा, दो बार प्रधानमंत्री बनने से चूक गए थे

Pranab Mukherjee Death: अपनी धुन के पक्के थे प्रणब दा, दो बार प्रधानमंत्री बनने से चूक गए थे

Pranab Mukherjee Death: अपनी धुन के पक्के थे प्रणब दा, दो बार प्रधानमंत्री बनने से चूक गए थे

Google Image | Pranab Mukherjee

Pranab Mukherjee Death: देश के 13वें राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी आज 84 वर्ष की उम्र में हम सब से विदा हो गए। मां भारती का एक सच्चा सिपाही आज उनसे जुदा हो गया। प्रणब दा पिछले पांच दशकों से भारत को विकास के उस सांचे में गढ़ रहे थे, जिसकी बदौलत आज का हिंदुस्तान वैश्विक स्तर पर अपना परचम बुलंद कर रहा है। प्रणब दा के सम्मान में 7 दिनों के राष्ट्रीय शोक की घोषणा की गई है और झंडे को झुका कर उन्हें भावभीनी श्रद्धाजंलि दी गई।

कल सुबह तकरीबन 10:00 बजे प्रणब मुखर्जी का पार्थिव शरीर उनके निवास पर लाया जाएगा। उनके पार्थिव शरीर को आम जनमानस के आखिरी दर्शन के लिए रखा जाएगा। अंतिम संस्कार में कोविड से जुड़े सभी निर्देशों का पालन किया जाएगा। सिर्फ परिवार के लोगों, सगे-संबंधियों और कुछ खास शख्सियतों को अंतिम संस्कार में जाने की इजाजत दी जाएगी।

प्रणब मुखर्जी अपनी धुन के पक्के नेता थे। सच का साथ देने और झूठ को नकारने की काबिलियत उनमें खूब थी। करीब पांच दशक के राजनीतिक जीवन में उन्होंने कई अहम मंत्रालयों के जरिए देश के विकास में अविस्मरणीय योगदान दिया। सन 70 के दशक में सियासत में कदम रखने वाले प्रणब दा केंद्र में विदेश, रक्षा और वित्त जैसे अहम मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाल चुके थे। जुलाई 2012 से जुलाई 2017 तक उन्होंने भारत के 13वें राष्ट्रपति के रूप में देश को अपनी सेवाएं दी।

प्रणब दा दो बार प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए 

प्रणब मुखर्जी ने सन 1969 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से सियासत का ककहरा सीखा था। तब वह कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा के लिए चुने गए थे। सन 1973 में उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया और औद्योगिक विकास मंत्रालय में उप-मंत्री की जिम्मेदारी सौंपी गई। इसके बाद सन 1975, 1981, 1993 और 1999 में  उन्हें राज्यसभा के लिए चुना गया था।

अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि वो इंदिरा गांधी के बहुत करीबी थे। आपातकाल के बाद जब कांग्रेस को पराजय का मुंह देखना पड़ा था तो वह इंदिरा गांधी के सबसे विश्वसनीय सहयोगी थे। सन 1980 में उन्हें राज्यसभा में कांग्रेस का नेता बनाया गया था। यही वो दौर था जब उन्हें सबसे शक्तिशाली और कद्दावर कैबिनेट मंत्री माना जाने लगा। हालांकि प्रणब दा का व्यक्तित्व भी कांग्रेस के दूसरे नेताओं के मुकाबले ज्यादा प्रभावी था। यही वजह थी कि जब कभी प्रधानमंत्री अनुपस्थित रहतीं, कैबिनेट की बैठकों की अध्यक्षता प्रणब मुखर्जी किया करते थे।

साल 1984 में इंदिरा गांधी की अकस्मात् हत्या हो जाने के बाद प्रणब दा प्रधानमंत्री पद के सबसे प्रबल दावेदार थे। उन्हें प्रधानमंत्री के पद के लिए उपयुक्त माना जा रहा था। ऐसा इसलिए भी था, क्योंकि वो इंदिरा गांधी के सबसे करीबी थे और कैबिनेट में सबसे ऊंचा ओहदा रखते थे। हालांकि कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश की और प्रणब दा के हाथ से प्रधानमंत्री बनने का मौका छूट गया। प्रणब मुखर्जी तात्कालिन कैबिनेट के सबसे वरिष्ठ सदस्य थे, इसलिए उन्हें यकीन था कि कार्यवाहक प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें नामित किया जाएगा। 

लेकिन राजीव गांधी के करीबी अरुण नेहरू ने राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का दांव चल दिया और राजीव गांधी प्रधानमंत्री बन गए। जब राजीव गांधी ने अपनी कैबिनेट का गठन किया तो उसमें इंदिरा गांधी की कैबिनेट में नंबर दो रहे प्रणब मुखर्जी को जगह नहीं दी गई। इससे नाराज होकर प्रणब दा ने कांग्रेस छोड़ दी और एक पार्टी की घोषणा की। उस पार्टी का नाम राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस पार्टी रखा गया। 

हालांकि उनकी पार्टी कोई खास कमाल नहीं कर सकी। जब तक राजीव गांधी सत्ता में रहे, प्रणब मुखर्जी को राजनीतिक वनवास काटना पड़ा। हालांकि बाद में दोनों के बीच की खाई पट गई और सन 1989 में उन्होंने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया।

प्रधानमंत्री बनने का सपना एक बार फिर टूटा

साल 2004 में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई तो श्रीमती सोनिया गांधी के विदेशी मूल के होने का मुद्दा खूब गरमाया। ऐसा माना गया कि कांग्रेस प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री बनाने पर विचार करेगी। पर प्रणब दा की किस्मत में कुछ और ही लिखा था। सोनिया गांधी ने डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला लिया और प्रणब दा एक बार फिर प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए।

अपनी आत्मकथा में प्रणब मुखर्जी ने लिखा है कि डॉ. मनमोहन सिंह की कैबिनेट में वो कोई पद नहीं चाहते थे। पर सोनिया गांधी के आग्रह करने पर उन्होंने अपना फैसला बदल दिया था। मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान प्रणब मुखर्जी ने वित्त और विदेश जैसे अहम मंत्रालयों का कार्यभार संभाला और हमेशा पार्टी में संकटमोचक की भूमिका निभाते रहे। 

बेशक प्रणब दा लम्बे अरसे तक कांग्रेस के खेवनहार रहे, पर पार्टी ने गुटबाजी के चलते कभी उन्हें ‘भारत रत्न’ देने का जोखिम नहीं उठाया। उन्हें ये सम्मान मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद हासिल हुआ। 26 जनवरी 2019 को प्रणब मुखर्जी को ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। 

प्रणब दा के नाम कुछ खास उपलब्धियां हैं। सिर्फ 47 वर्ष की उम्र में साल 1982 में वो भारत के सबसे युवा वित्त मंत्री बने थे। वो भारत के पहले ऐसे राष्ट्रपति थे जो विदेश, रक्षा, वित्त और वाणिज्य मंत्री के रूप में देश को अपनी सेवाएं दे चुके थे।

प्रणब मुखर्जी एक बेहद प्रतिभावान, मजबूत इरादों, मुद्दों की गहरी समझ और बेहतरीन याददाश्त क्षमता वाले राजनेता थे। पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के मिराती गांव में 11 दिसंबर 1935 को प्रणब दा का जन्म हुआ था। उनके माता-पिता स्वतंत्रता आंदोलन में पूरी तरह सक्रिय थे। उनके पिता कांग्रेस के नेता थे और आजादी के आंदोलन में कई बार जेल भी गए थे।


यही वजह थी कि प्रणब दा कभी अपनी जड़ों को नहीं भूले। वो हमेशा अपनी मिट्टी से जुड़े रहे। राष्ट्रपति बनने के बाद भी दुर्गा पूजा के दौरान वो अक्सर अपने गांव जाया करते थे। पूरी सादगी से पूजा करते और लोगों के साथ घुल-मिल जाते थे। इसी लिए से वो आम जनमानस के नेता थे। बिलकुल जमीन से जुड़े हुए। उनमें कोई द्वेष, कोई ईष्या नहीं थी। पूरी जिंदगी हिंदुस्तान की सेवा करते रहे। देश अपने इस योद्धा को सदैव याद रखेगा।

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