आज ही पैदा हुए थे हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद, तानाशाह हिटलर के सामने ही जर्मनी को दी थी मात

आज ही पैदा हुए थे हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद, तानाशाह हिटलर के सामने ही जर्मनी को दी थी मात

आज ही पैदा हुए थे हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद, तानाशाह हिटलर के सामने ही जर्मनी को दी थी मात

Google Image | मेजर ध्यानचंद

किसने सोचा था कि आज ही के दिन 29 अगस्त, 1905 को इलाहाबाद (वर्तमान प्रयागराज) में पैदा हुआ एक बालक अगले 3 दशकों में दुनिया भर में हिंदुस्तान की एक नई छवि प्रस्तुत करेगा। जी हां, हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद का जन्म आज ही के दिन हुआ था। इसीलिए भारत सरकार ने उनकी जन्मतिथि को राष्ट्रीय खेल दिवस के रुप में मनाने का फैसला लिया था। जिस दौर में दुनिया हिंदुस्तान को सिर्फ एक गुलाम और पिछड़ा देश समझती थी, मेजर ध्यानचंद ने अपनी असाधारण खेल प्रतिभा से भारत का नाम वैश्वकि फलक पर शानदार उपलब्धियों के साथ स्थापित किया। ये ध्यानचंद का हॉकी के लिए समर्पण ही था जिससे उनका और हिंदुस्तान का नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया।

मेजर ध्यानचंद को हॉकी से इतना लगाव था कि जब वो खेलते थे तो प्रतिद्वंदी खिलाड़ियों को ऐसा लगता था कि गेंद उनके हॉकी की स्टिक से चिपक गई है। हॉकी की दुनिया में मेजर ध्यानचंद को वही सम्मान हासिल है जो फुटबॉल जगत में पेले और क्रिकेट में डॉन ब्रैडमैन का है। ध्यानचंद को खेल जगत की दुनिया में दद्दाके नाम से भी जाना जाता है। उनकी जन्मतिथि यानी राष्ट्रीय खेल दिवस को ही सर्वोच्च खेल सम्मान जैसे राजीव गांधी खेल रत्न, अर्जुन पुरस्कार, ध्यानचंद पुरस्कार और द्रोणाचार्य पुरस्कारों से खिलाड़ियों को सम्मानित किया जाता है।

बचपन में ध्यान चंद को हॉकी से बहुत ज्यादा लगाव नहीं था। उस वक्त वो पहलवान बनना चाहते थे। 16 वर्ष की उम्र में वो भारतीय सेना से जुड़ गए थे। ऐसा कहा जाता है कि खेल के प्रति वो बहुत सजग और समर्पित थे और अक्सर चांदनी रात में अभ्यास किया करते थे। उस वक्त खेल के लिए बुनियादी संसाधनों की बहुत कमी थी। रात में अभ्यास के लिए उजाले की कोई व्यवस्था नहीं थी। इसीलिए वो चांद के उगने का इंतजार किया करते थे। इससे उनके करीबी उन्हें चंद कह कर बुलाने लगे और धीरे-धीरे उनका नाम ध्यानचंद हो गया। अपने शुरुआती दिनों 1922 से 1926 के दौरान मेजर ध्यानचंद सिर्फ सेना के लिए हॉकी और रेजिमेंट खेलों में हिस्सा लेते रहे।

इसके बाद उन्हें भारतीय सेना की हॉकी टीम में चुना गया। इस टीम को न्यूजीलैंड में जाकर खेलना था। इस दौरे पर टीम ने 18 मैच जीते, दो ड्रॉ हो गए और एक मैच भारतीय सेना की टीम को हारना पड़ा। लेकिन इस दौरे ने दुनिया भर में हिंदुस्तान का परचम बुलंद किया और और खेल देखने आए दर्शकों ने भारतीय टीम की खूब सराहना की। इस दौरे से लौटने के बाद ध्यानचंद को लांस नायक के पद पर पदोन्नत किया गया। साल 1928 ध्यानचंद के करियर के लिए बेहद खास रहा। इसी साल एमस्टरडम में हुए ओलंपिक में भारतीय टीम के पहले ही मैच में मेजर ध्यानचंद ने ऑस्ट्रिया के खिलाफ तीन शानदार गोल किए। इसके बाद भारत ने बेल्जियम को 9-0 से हरा कर इतिहास रच दिया। हालांकि ध्यानचंद इस मैच में सिर्फ एक गोल दाग पाए थे।

अगले मैच में भारत में डेनमार्क को हराकर जीत हासिल की। इस मैच में कुल 5 में से तीन गोल ध्यानचंद ने अकेले दागे। स्विट्जरलैंड के खिलाफ खेलते हुए ध्यानचंद ने चार गोल किए और एक बार फिर भारत की टीम विजयी हुई। फाइनल मैच 26 मई को नीदरलैंड के खिलाफ खेला गया था। पर इस मैच से पहले भारत के कई खिलाड़ी बीमार हो गए थे। खुद ध्यानचंद की सेहत भी नासाज थी। बावजूद इसके भारतीय टीम ये मैच 3-0 से जीतने में सफल रही। अस्वस्थ अवस्था में भी मेजर ध्यानचंद ने दो गोल किए और भारत ने हॉकी में अपना पहला गोल्ड मेडल जीता। इस ओलंपिक में ध्यानचंद सबसे ज्यादा गोल करने वाले खिलाड़ी बने। ध्यानचंद के बारे में एक अखबार ने लिखा था “ ये हॉकी का मैच नहीं था बल्कि जादू था। ध्यानचंद असल में हॉकी के जादूगर हैं इस दौर में भारत ने ओलंपिक में तीन स्वर्ण पदक जीते।

इसके बाद के सभी दौरों में मेजर ध्यानचंद की हॉकी स्टिक ने खूब कमाल दिखाया। विपक्षी खेमे को कभी संभलने का मौका नहीं मिला और ध्यानचंद पूरे उत्साह एवं जुनून से हर मैच में अपनी खेल प्रतिभा का लोहा मनवाते रहे। ध्यानचंद का हॉकी जगत में इतना असर था कि वियना के एक स्पोर्ट्स क्लब में उनकी 4 हाथों वाली मूर्ति लगी है और उन में हॉकी स्टिक लगाई गई हैं। इससे हॉकी के युवा खिलाड़ी प्रेरणा लेते हैं। बर्लिन में आयोजित ओलंपिक में 15 अगस्त 1936 को भारतीय दल ने बर्लिन के हॉकी स्टेडियम में जर्मनी के तानाशाह हिटलर की मौजूदगी में ही जर्मनी को शिकस्त दी थी। कहा जाता है कि उस दिन स्टेडियम में 40 हजार दर्शक उपस्थित थे। इससे हिटलर ध्यानचंद से बहुत प्रभावित हुआ और उन्हें अपने साथ रात्रि भोजन पर आमंत्रित किया। इस दौरान हिटलर ने ध्यानचंद को जर्मनी की फौज में बड़े पद पर काम करने का प्रस्ताव दिया था। हिटलर चाहता था कि ध्यानचंद जर्मनी के लिए हॉकी खेले। पर ध्यानचंद को अपनी सरजमीं से बेपनाह मोहब्बत थी और उन्होंने इस प्रस्ताव से इनकार कर दिया।

बातचीत के दौरान उन्होंने कहा था कि हिंदुस्तान ही मेरा वतन है और मैं पूरी जिंदगी सिर्फ हिंदुस्तान के लिए ही खेलता रहूंगा। एक ऐसा भी किस्सा है जिससे ध्यानचंद के खेल समर्पण को समझा जा सकता है। अपने एक मैच में ध्यानचंद गोल नहीं कर पा रहे थे। इससे वो काफी नाराज थे। पर उन्होंने अपना आत्मविश्वास नहीं खोया और मैच रेफरी से गोलपोस्ट की चौड़ाई की जांच करने का अनुरोध किया। जब जांच की गई तो हर कोई हैरान रह गया। गोलपोस्ट की चौड़ाई खेल के तय मानकों के हिसाब से सही नहीं थी।

सन 1956 में 51 वर्ष की उम्र में कैप्टन ध्यानचंद भारतीय सेना से सेवानिवृत्त हो गए। इसी वर्ष भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। सेना छोड़ने के बाद मेजर ध्यानचंद राजस्थान के माउंट आबू में युवा हॉकी खिलाड़ियों को हॉकी की बारिकियों से रूबरू कराते रहे। इसके बाद पटियाला के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्पोर्ट्स में उन्हें चीफ हॉकी कोच नियुक्त किया गया। जीवन के आखिर दिनों में ध्यानचंद अपने पैतृक निवास झांसी चले गए। दिल्ली स्थित एम्स में 3 दिसंबर 1979 को उनका निधन हो गया।

 

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