Uttar Pradesh : मुल्क आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। बरेली के खान बहादुर खान ने अपने क्रांतिकारियों के साथ सत्तावनी गदर में अंग्रेजों को उखाड़कर फेंक दिया था। बरेली में जब भी आजादी की लड़ाई पर बात होगी तो 70 साल के रुहेला सरदार खान बहादुर खान का नाम सबसे पहले लिया जाएगा। भारत को आज़ाद कराने के लिए 1857 में जिस क्रांति का सूत्रपात हुआ था, उसमें भारतीयों की शौर्य गाथाएं हर पीढ़ी को प्रेरणा देती रहेंगी। इस युद्ध में रुहेलखंड में भी अवध जितना ही भीषण खूनी संघर्ष हुआ था। रुहेलों के 70 साल के बुज़ुर्ग नेता नवाब खान बहादुर खां स्वतंत्र रुहेलखंड के सबसे बड़े नायक के तौर पर उभरे थे। दूसरी तरफ आजादी के अमृत महोत्सव के मौके पर उनके वंशज निराश हैं। उनका कहना है, "सरकार सौतेला रवैया है। उनकी मजार को लेकर सरकार कोई कदम नहीं उठा रही है।"
खान बहादुर ने रुहेलखंड में अपनी सरकार कायम की
रुहेले पठान मुबारक शाह खां और खान बहादुर खां को ही अपना नेता मानते थे। 31 मई को क्रांति शुरू होते ही मुबारक शाह और खान बहादुर अपने सैनिकों के साथ कोतवाली की तरफ बढ़े। मकसद खुद को दिल्ली के बादशाह के अधीन बरेली का नवाब-नाज़िम घोषित करना था। अचानक मुबारक शाह ने खान बहादुर खां को अपने से बेहतर मानते हुए खुद गद्दी पर बैठने का इरादा बदल दिया। खान बहादुर खां रुहेलखंड के शासक बन गए और मुबारक शाह उनके खास सहायक बन गए। अंग्रेज़ चुन-चुनकर मारे गए। पहली जून 1857 की दोपहर बरेली में नवाब खान बहादुर खां का दरबार लगा। सरकारी मुलाज़िमों को काम ठीक से करने का आदेश दिया गया। बरेली में ईस्ट इंडिया कंपनी का खात्मा हो चुका था। सेना और प्रशासनिक पदों पर अधिकारी नियुक्त हुए, उनकी तन्ख्वाह तय हुई। जनरल के पद पर मदारअली खां और नियाज़ मुहम्मद खां को हर महीने बतौर वेतन एक-एक हज़ार रुपये तय हुए। अवध-दरबार के ‘नगीने’ और प्रसिद्ध गायक शुजाउद्दौला को नवाब खान बहादुर खां का सहायक यानी एडीसी बनाया गया।
बख्त खान के साथ 29 हजार सैनिक दिल्ली भेजे
अगले दिन 2 जून को नवाब ने मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर को पत्र भेजा। इसमें पूरे घटनाक्रम को सिलसिलेवार बताकर बादशाह से अनुरोध किया गया था कि वे नवाब खान बहादुर को कटिहर का नाज़िम नियुक्त करें। बादशाह ने अर्जी मंज़ूर कर आदेश जारी कर दिया। बादशाह के इस अहसान का बदला नवाब खान बहादुर ने पूरी वफादारी से निभाया और जनरल बख्त खां के नेतृत्व में 16 हज़ार सैनिकों की एक टुकड़ी दिल्ली भेज दी। बख्त खां और उसकी टुकड़ी के दिल्ली पहुंचने के समाचार से बादशाह खुश हुए। उन्होंने बख्त खां को ‘सिपहसालार बहादुर’ की उपाधि देकर अपनी पूरी सेना उनके अधीन कर दी। बादशाह-ए-हिंद को खुश करने के बाद खान बहादुर की अगली बड़ी चुनौती बरेली और पूरे रुहेलखंड में शासन-व्यवस्था दुरुस्त करने की थी। उन्होंने बड़े निर्णयों के लिए एक कोर कमिटी बनाई। इसमें हिंदू-मुस्लिम दोनों पक्षों के लोग शामिल थे। तहसीलदार और थानेदारों की नियुक्ति के बाद सैनिक भर्ती किए गए। शोभराम को रियासत का दीवान बनाया। उन्हें पता था कि अगले कुछ महीनों में अंग्रेज़ों से ज़ोरदार लड़ाइयां होंगी, इसलिए घुड़सवारों और पैदल सैनिकों समेत करीब 29 हज़ार सैनिक तैयार किए गए।
टैक्स लगाया और चांदी के नए सिक्के ढलवाए गए
इन कोशिशों के बीच खान बहादुर की बड़ी समस्या खज़ाने की थी। रुहेलखंड की माली हालत बिगड़ चुकी थी। कोर कमिटी ने प्रजा के धन के दसवें हिस्से को बतौर टैक्स लेने का फैसला किया। कर से एक लाख 7 हज़ार रुपये आए। यह रकम युद्ध की तैयारियों में खर्च हो गई, लेकिन बात इतने से नहीं बनी। रुपयों की कमी बनी रही। गहरे विचार-विमर्श के बाद नए सिक्के ढाले गए। उस वक्त चांदी के रुपये की कीमत 16 आने थी। दौर कोई भी हो, शासन चलाना हमेशा मुश्किल काम होता है। खान बहादुर खां की समस्या दूसरी थी। मुस्लिम नवाब और उनके सिपहसालारों के प्रभावशाली हिंदू ठाकुरों से रिश्ते ठीक नहीं थे। खान बहादुर इसे समझते थे। उन्होंने दूरियां मिटाने की कोशिशें शुरू कीं। काफी प्रयासों के बाद ठाकुरों ने नवाब का आधिपत्य स्वीकार कर लिया।
रुहेलखंड में हिन्दू-मुस्लिम एकता कायम की
इस दौर में रुहेलखंड में आम हिंदू-मुस्लिमों के बीच दूरियां भी बढ़ने लगी थीं। लंबी बैठकों के बाद खान बहादुर हिंदू-मुस्लिमों को एक करने में कामयाब हुए। रुहेलखंड में ‘धर्म की विजय’ शीर्षक वाले छपे हुए पर्चे बांटकर दोनों कौमों को एक होकर अंग्रेज़ों से लड़ने का संदेश दिया था। आनंद स्वरूप मिश्रा ने लिखा है, ‘खान बहादुर ने हिंदू-मुस्लिमों को चेतावनी दी थी कि वे एक-दूसरे के खिलाफ किसी उकसावे से बचें। उन्होंने गाय को मारने पर पाबंदी लगा दी थी।’ यह सब चल ही रहा था कि अगस्त-1857 के बाद दिल्ली पर अंग्रेज़ों के कब्ज़े ने बरेली में खलबली मचा दी। आम लोग और क्रांतिकारी परेशान हो उठे। जनता में फैली घबराहट कम करने के लिए कुछ अखबारों में यह झूठी खबर छपवाई गई कि दिल्ली और लखनऊ पर क्रांतिकारियों का राज हो गया है। इस बीच अक्टूबर में दिल्ली के बादशाह की तरफ से नवाब खान बहादुर को विशेष वस्त्र- ‘खिलअत’ भेजा गया, इससे जनता ने माना कि बादशाह का राज कायम है।
नैनीताल में अंग्रेजों पर तीन हमले किए और हारे
अब दोबारा लड़ाई का समय आ गया था। खान बहादुर रुहेलखंड में अपनी पकड़ मज़बूत करना चाहते थे, लेकिन समस्या यह थी कि नैनीताल में अंग्रेज़ मौजूद थे। इस खतरे को खत्म करने के लिए नैनीताल पर हमले की तैयारियां शुरू हुईं, लेकिन जासूसों ने गोरों को आक्रमण की सूचना पहले ही दे दी थी। नैनीताल पर तीन बार आक्रमण हुए और हर बार नवाब की फौज हारी। नैनीताल पर हुए दूसरे हमले के बाद एक महत्वपूर्ण घटना हुई। बहादुर शाह ज़फर के पुत्र फिरोज शाह बरेली आए और कुछ दिन रुकने के बाद लखनऊ चले गए। बरेली में उन्होंने अपना छपा हुआ घोषणा पत्र जारी किया। इसमें क्रांतिकारियों को बताया गया था कि ‘अवध के क्रांतिकारी नवाब अवध, रुहेलखंड के क्रांतिकारी नवाब खान बहादुर और बाकी उनके यानी फिरोज़ शाह के साथ आ जाएं।’ साल के अंत में गोरों ने हिदुओं को नवाब खान बहादुर के खिलाफ भड़काने का प्रयास किया था। इस पर 50 हज़ार रुपये भी खर्च हुए थे, लेकिन अंग्रेज़ों के हिस्से नाकामी आई।’
खुलेआम फांसी दी गई और जेल में बनाई कब्र
अंग्रेजों का पूरे देश में राज था। दिल्ली, अवध, झांसी और वेस्टर्न यूपी में क्रांतिकारियों का पतन हो गया। अंग्रेजों ने पूरी ताकत के साथ बरेली पर हमला बोला। कई दिन खूनी संघर्ष चला और खान बहादुर को नेपाल भागना पड़ा। वहां उन्हें पकड़ लिया गया और अंग्रेजों के हवाले कर दिया। अंग्रेज उन्हें बरेली वापस लेकर आए। उनके खिलाफ मुकदमा चलाकर सजा-ए-मौत सुनाई गई। 24 मार्च, 1860 को शनिवार की सुबह 7 बजकर 10 मिनट पर बरेली की जनता के सामने उन्हें कोतवाली में फांसी पर लटका दिया गया। इसके बाद एक घंटे तक उनका शरीर फांसी पर झूलता रहा था। यह सब आम आदमी दहशत डालने के लिए किया गया था। बाद में शव को जेल के भीतर बनाई गई कब्र में दफना दिया गया था ताकि लोग उनकी मजार न बना दें। लंबे इंतजार के बाद आखिरकार खान बहादुर खान की मजार को जेल से बाहर किया गया। अब खान बहादुर खान की मजार बदहाली में है। खान बहादुर खान को पुरानी कोतवाली में फांसी देने के बाद अंग्रेजों को भय था कि लोग वहां इबादत करने लगेंगे। जिसके कारण खान बेड़ियों के साथ दफन कर दिया गया। बरेली भूड़ में आज भी खान का घर है, जहां उनके वंशज रह रहे हैं। साईकिल पंक्चर जोड़कर घर चलता है। गुरबत के कारण शदियों में जाने के लिए कपड़े नहीं हैं। घर में जवान लड़कियां बैठी हैं लेकिन पैसा नहीं होने के कारण शादी नहीं हो पा रही हैं।