जमींदारी छोड़कर जेल गए, लेकिन अंग्रेजों की मुख़ालफ़त नहीं छोड़ी, पढ़िए भदोही के फ्रीडम फाइटर की कहानी

आज़ादी का अमृत महोत्सव : जमींदारी छोड़कर जेल गए, लेकिन अंग्रेजों की मुख़ालफ़त नहीं छोड़ी, पढ़िए भदोही के फ्रीडम फाइटर की कहानी

जमींदारी छोड़कर जेल गए, लेकिन अंग्रेजों की मुख़ालफ़त नहीं छोड़ी, पढ़िए भदोही के फ्रीडम फाइटर की कहानी

Tricity Today | आज़ादी का अमृत महोत्सव

Uttar Pradesh : स्वाधीनता संग्राम के दौरान जब कई राजे-रजवाड़े अंग्रेजों की हां में हां मिलाकर मलाई काट रहे थे, उस समय कुछ ऐसे राजशाही परिवार भी थे, जिन्होंने अंग्रेजी गुलामी की मुखालफत में आवाज बुलंद की। ऐसे ही भदोही में गोपीगंज के जमींदार जंग बहादुर सिंह बघेल थे। गोपीगंज में बघेल छावनी भवन आज भी जंग-ए-आजादी का साक्षी है। 22 गांवों की जमींदारी के ठाठ और रसूख को देश के लिए छोड़ देने की हिम्मत भदोही के इस बघेल परिवार में थी। गोपीगंज के जमींदार बघेल परिवार के वरिष्ठ सदस्य जंग बहादुर सिंह बघेल ने ना केवल जंग-ए-आजादी में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, बल्कि आजादी के बाद 20 एकड़ से ज्यादा जमीन विनोबा भावे जी को उनके भूदान आंदोलन में दे दी थी। जमींदार होते हुए भी महीनों जेल की यातनाएं झेली थीं।

जंग बहादुर सिंह बघेल बापू के नजदीक हो गए थे
बघेल छावनी में स्वाधीनता संग्राम के दौरान तमाम चोटी के नेताओं का आगमन हुआ। यहां आजादी की लड़ाई की रणनीति पर चर्चा होती थी। जंग बहादुर सिंह बघेल की अगुवाई में इस परिवार के तीन सदस्यों ने जंग-ए-आजादी में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। गांधी जी के आंदोलन से प्रभावित होकर जंग बहादुर सिंह बघेल 1930 के दशक में कांग्रेस के साथ हो लिए और स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे। जंग बहादुर सिंह बघेल गांधी जी के साबरमती आश्रम और महाराष्ट्र के वर्धा आश्रम में जाकर कई महीने तक रुके। आजादी की लड़ाई में योगदान किया। यहीं से उनकी गिरफ्तारी भी हुई। साथ में भतीजी कृष्णा और भतीजे हृदय नारायण सिंह बघेल ने भी आजादी की लड़ाई लड़ी। 13 महीनों तक तीनों लोगों ने जेल की सजा काटी। चार महीने तक नैनी जेल में भी रहे थे।
 
बघेल छावनी में एक रात ठहरा अवध का आखिरी नवाब
हृदय नारायण सिंह बघेल फरार हो गए थे। उनके नाम अंग्रेजी सरकार ने फरारी वारंट जारी किया था। भूदान आंदोलन के प्रणेता विनोबा भावे जब बघेल छावनी आए तो उनके आंदोलन से प्रभावित होकर जंग बहादुर बघेल ने 20 एकड़ से अधिक जमीन भूदान यज्ञ में दान कर दी थी। दोनों क्रांतिकारी चाचा-भतीजों जंग बहादुर सिंह बघेल और हृदय नारायण सिंह बघेल से व्यक्तिरूप से मिल चुके भदोही जिला निर्माण समिति के महामंत्री केशव कृपाल पांडेय बताते हैं, "गोपीगंज की बघेल छावनी का जिक्र अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह ने अपने सफरनामे में किया है। जब अंग्रेज उसे गिरफ्तार करके ले जा रहे थे, उस समय बघेल छावनी के गेस्ट हाउस में एक रात के लिए वाजिद अली शाह को ठहराया गया था।" उसने अपने सफरनामे में लिखा है, 'रास्ते में मिला था गोपीगंज, जिसकी कीमत थी टोपी से भी कम।' जंग बहादुर सिंह बघेल के भतीजे और बघेल परिवार के वयोवृद्ध सदस्य रहे गुलाब सिंह बघेल ने एक समाचार पत्र को बताया था, "विदेशी कपड़ों की होली जलाने के मामले में दादा जी और बुआ जी को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया था। मैं भी बाल्यावस्था में उन लोगों से मिलने के लिए नैनी जेल जाया करता था।"
 
गोपीगंज में महफूज हैं बापू की अस्थियां
आजादी की लड़ाई में भदोही जिले की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। गोपीगंज के जमींदार बघेल परिवार की साबरमती और वर्धा आश्रम से घनिष्ठता के कारण वर्ष 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद उनकी अस्थियों का कुछ हिस्सा क्रांतिकारी जंग बहादुर सिंह बघेल अपने साथ लेकर आए थे। गोपीगंज क्षेत्र के रामपुर कायस्थान गांव में आजादी के महानायक के अस्थि कलश को स्मारक के रूप में सहेजकर रखा गया है। यहां जंगबहादुर का एक आश्रम भी है, जहां भूदान आंदोलन के प्रणेता विनोबा भावे समेत कई क्रांतिकारी आ चुके हैं। हालांकि, उपेक्षा के कारण स्मारक के साथ आश्रम खंडहर में तब्दील हो चुका है। साबरमती के जिस संत के पीछे समूचा देश आजादी की दीवानगी मन में पालकर निकल पड़ा था, उसका भदोही जिले से गहरा नाता था। कम ही लोग जानते हैं कि महात्मा गांधी काशी नरेश के जमाने में गोपीगंज के जमींदार बघेल परिवार की बघेल छावनी के मेहमान बने थे। पंडित जवाहर लाल नेहरू और विनोबा भावे जैसी विभूतियां बघेल छावनी की शोभा बढ़ा चुकी हैं।

रामपुर कायस्थान गांव में बघेल परिवार ने बनवाया स्मारक
गांधी युग में बघेल परिवार मान्यता प्राप्त जमींदार घराना था। जिसे काशी राज्य के राजाओं जैसा हक और मान हासिल था। 1930 के दशक में जंग बहादुर सिंह बघेल आजादी के लिए महात्मा गांधी और कांग्रेस के साथ हो लिए। अपनी भतीजी कृष्णा सिंह को साथ लेकर वह स्वाधीनता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी करने लगे। इसमें उनके भतीजे हृदय नारायण सिंह ने भी साथ दिया। जंग बहादुर सिंह बघेल और कृष्णा साबरमती व वर्धा आश्रम में जाकर महीनों तक रुके और आजादी की लड़ाई में योगदान किया। सन 1948 में जब राष्ट्रपिता चिर निद्रा में लीन हो गए तो अंतिम संस्कार के बाद उनकी अस्थियों को उनके कुछ नजदीकी लोगों में वितरित किया गया था। जंग बहादुर सिंह बघेल ने यह कहकर गांधीजी की अस्थियां ग्रहण की थीं कि महान विभूति की राख से गोपीगंज की धरती और पवित्र हो जाएगी। इसके बाद गोपीगंज क्षेत्र के रामपुर कायस्थान गांव में बघेल परिवार की ही जमीन में अस्थित कलश में रखकर उसे पक्के स्मारक का रूप दे दिया गया। जंगबहादुर के पोते और हृदयनारायण बघेल के पुत्र गुलाब सिंह बघेल के मुताबिक, "दादा जी बापू के काफी नजदीकी थे। इलाहाबाद संगम में उनकी अस्थियों के विसर्जन के दौरान मैं भी बुआ जी कृष्णा सिंह के साथ गया था। मैं छोटा था, लेकिन वह दृश्य आज भी मुझे बखूबी याद है। उसी समय दादा जी बापू की अस्थियां लेकर यहां आए थे।"

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