झांसी की तरह बस्ती की रानी भी अंग्रेजों से लड़कर हुई थीं शहीद

आज़ादी का अमृत महोत्सव : झांसी की तरह बस्ती की रानी भी अंग्रेजों से लड़कर हुई थीं शहीद

झांसी की तरह बस्ती की रानी भी अंग्रेजों से लड़कर हुई थीं शहीद

Tricity Today | आज़ादी का अमृत महोत्सव

Uttar Pradesh : प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को जनक्रांति का रूप देने में कई बड़े नाम आपने सुने होंगे। मसलन, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को पूरी दुनिया जानती है। उन्होंने सत्तावनी क्रांति को बच्चे-बच्चे तक पहुंचा दिया था। कुछ ऐसे नाम भी हैं, जिनका योगदान तो रानी झांसी सरीखा है लेकिन उनका किस्सा भारतीय इतिहास का हिस्सा नहीं बन पाया। बस्ती जिले में अमोढ़ा रियासत की रानी तलाश कुंवरि का बलिदान भी कुछ ऐसा ही है। यहां आसपास के इलाके में उन्हें लोग गौरव के साथ याद करते हैं। आजादी की पहली लड़ाई में रानी ने पूरी ताकत से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। रानी शहीद हुईं और उनके तमाम सिपहसालारों को ब्रिटिश हुकूमत ने सामूहिक रूप से पेड़ों पर लटका कर फांसी दी थीं।

अमोढ़ा रियासत को हड़पना चाहती थी ब्रिटिश हुकूमत
देश की आजादी के 75 साल पूरे होने पर हर तरफ उल्लास है। इसके पीछे उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का अमर बलिदान है, जिन्हें याद करके आज हमें गर्व की अनुभूति होती है। ऐसा ही एक नाम महारानी तलाश कुंवरि का है। उन्हें बस्ती और पूर्वांचल में दूर-दूर तक लोग याद करते हैं। वह अमोढ़ा रियासत की अंतिम शासक थीं। एसआर पीजी कॉलेज दसिया के प्राचार्य और इतिहास विभाग के अध्यक्ष डॉ.वीरेंद्र श्रीवास्तव ने बस्ती स्वतंत्रता आंदोलन पर लंबा शोध किया है। 'स्वतंत्रता संग्राम में बस्ती मंडल का योगदान' शीर्षक से पुस्तक लिखी है। वह बताते हैं, "साल 1852 में महाराजा जंग बहादुर सिंह का निधन हो गया। महाराजा के बाद रानी तलाश कुंवरि को सत्ता की बागडोर संभालनी पड़ी। उस समय अंग्रेज अपने राज्य विस्तार में पूरी ताकत झोंक रहे थे। ब्रिटिश हुकूमत की नजर एकाएक अमोढ़ा रियासत पर पड़ गई। अमोढ़ा को हथियाने के लिए कुचक्र रचना शुरू कर दिया।

अंतिम सांस तक रानी ने अंग्रेजों से युद्ध किया
रानी का सहयोग करने के लिए आसपास की मित्र रियासतों ने समर्थन किया और संगठन बना लिया। जिसमें अमोढ़ा भी शामिल हो गया। रियासतों ने अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में 1857 की लड़ाई शुरू की। इधर, रानी की बढ़ती ताकत से तिलमिलाए अंग्रेजों ने विद्रोह को दबाने के लिए 1858 में कर्नल ह्यूज के नेतृत्व में ब्रिटिश फौज को आक्रमण के लिए भेज दिया। रानी और उनके सैनिक अंग्रेजों से वीरता के साथ लड़े। डॉ.वीरेंद्र श्रीवास्तव कहते हैं, "अंग्रेज रानी को जिंदा पकड़ना चाहते थे, लेकिन रानी ने सौगंध ले रखी थी कि वह जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं लगेंगी। इसी संकल्प को आत्मसात करके वह अंग्रेजों से युद्ध करते हुए पखेरवा कुंवर समय माता के पूजा स्थान पर पहुंच गईं। उन्होंने अपने सिपहसालारों को बुलाकर कहा, अब प्राण बचने मुश्किल हैं। यहीं पर उन्होंने दो मार्च 1858 को छाती में कटार घोंप कर बलिदान दे दिया। रानी ने देश में बस्ती का नाम स्वर्णाक्षरों में दर्ज कराया। उनकी वीरता किसी मायने में रानी लक्ष्मीबाई कम नहीं है। रानी की मौत के बाद उनके शव को सहयोगियों ने छिपा लिया। बाद में शव को अमोढ़ा राज्य की कुल देवी समय माता भवानी का चौरा के पास दफना दिया गया। यह जगह रानी चौरा टीले के नाम से प्रसिद्ध है। पखेरवा में रानी के घोड़े को दफनाया गया है। इस जगह पर एक पीपल का पेड़ मौजूद है।"

500 क्रांतिकारियों को गोरों ने मौत के घाट उतारा
रानी की शहादत के बाद भी क्षेत्र के लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष जारी रखा। तब अंग्रेजों की सेना ने गांव-गांव जाकर रानी के सैनिकों और उनका सहयोग करने वालों को पकड़ा। गांवों को जलाया गया। महिलाओं को छोड़कर किसी मर्द को ज़िंदा नहीं छोड़ा गया था। मुकदमे चलने का नाटक करके अंग्रेजों ने 150 सैनिकों को छावनी में पीपल के पेड़ से लटका कर मौत के घाट उतार दिया। यह सिलसिला महीनों तक चलता रहा था। यहां करीब 500 क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने फांसी दीं। छावनी शहीद स्थल का निर्माण वर्ष 1972 में तत्कालीन प्रदेश सरकार ने कराया। यहां 1992 से सालाना मेला लगता है। यहीं एक सरकारी शिलालेख पर महारानी का जीवन परिचय लिखा है। दूसरी तरफ शहीदों के नाम अंकित हैं। हालांकि, शिलालेख में सिर्फ 19 शहीदों का नाम अंकित है। बाकी सैकड़ों शहीदों के नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं हो पाए। इनकी गुमनाम शहादत इस मुल्क की आजादी को सींच रही हैं।

इकलौती क्रन्तिकारी जिसके खिलाफ लड़ी ब्रिटिश नौसेना
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह के मुताबिक, "महारानी तलाश कुंवरि के नेतृत्व में हुए विद्रोह के कारण रास्ता और संचार के सारे तार टूट जाने से अंग्रेज बुरी तरह बौखला गए। रानी तलाश कुंवरि को मारने और बगावत कुचलने के लिए उन्होंने नेपाली सेना और तोपों की मदद ली। जनवरी 1858 को अंग्रेजी सेना ने कर्नल रोक्राफ्ट के नेतृत्व में अमोढ़ा की ओर कूच किया लेकिन हार का मुंह देखना पड़ा था। घाघरा नदी के किनारे लगातार पराजय से बौखलाए कर्नल रोक्राफ्ट ने अवध प्रांत में पहली दफा किसी बगावत को कुचलने के लिए नौसेना को बुलाया था। एचएमएस शिप घाघरा नदी में पहुंचा। नौसेना के स्टीमर पर सवार अंग्रेजी फौज घाघरा नदी पर हथियारों के साथ तैनात हो गई। लेफ्टिनेंट कर्नल हृयूज ने गोंडा की ओर से आकर पखेरवा के करीब रानी पर हमला कर दिया। लेकिन रानी की बहादुरी के चलते उसे पीछे हटना पड़ा था।

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