मेरा बलिदान रजवाड़ों का स्वाभिमान जगाएगा

आज़ादी का अमृत महोत्सव :  मेरा बलिदान रजवाड़ों का स्वाभिमान जगाएगा

 मेरा बलिदान रजवाड़ों का स्वाभिमान जगाएगा

Tricity Today | symbolic

Uttar Pradesh : समूचा देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। ऐसे में वीरभूमि महोबा के योगदान को याद किए बिना सब अधूरा है। यहां के रणबांकुरों ने अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला दी थीं। 1857 के स्वाधीनता संग्राम में महोबा के लोगों ने अंग्रेजों को खदेड़ दिया था। एक तरफ सुगिरा के नरेश बरतानिया हुकूमत से लड़ रहे थे तो दूसरी ओर आम आदमी अंग्रेजों से लड़ रहा था। पांच अंग्रेज अफसरों को बकरी चराने वाले चरवाहों ने ही मौत के घाट उतार दिया था। अंग्रेजों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने 16 वीरों को फांसी के फंदे से लटकाया था। वीर आल्हा उदल की नगरी महोबा सत्तावनी क्रांति में रक्तरंजित हो गई थी।

चरखारी की गुलामी से शुरू हुई क्रांति
साल 1950 तक सभी रजवाड़े चरखारी स्टेट पर कब्जा करने को लालायित रहते थे। 1857 में यहां की सत्ता रतन सिंह के हाथ में थी। उसने महोबा के अंग्रेज कलेक्टर कार्नो की मध्यस्थता से ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी स्वीकार कर ली। लिहाजा, विरोध के स्वर गूंजने लगे। इस पर कलेक्टर कार्नो ने भारी कत्लेआम करवाया। उस वक्त राव महीपत सिंह सुगिरा के नरेश थे। उन्होंने यह खबर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और बिठूर के तात्या टोपे को दी। सुगिरा नरेश के आमंत्रण पर दोनों फिरंगियों को सबक सिखाने आए और यहां अपना डेरा डाल लिया। कलेक्टर कार्नो चरखारी के किले में जा छिपा। सुगिरा, झांसी और बिठूर की सेनाओं ने चरखारी को घेरकर राजा रतन सिंह पर दबाव बनाया कि कार्नो को उनके हवाले कर दे। इस बीच खबर आई कि ब्रिटिश सेना ने झांसी पर हमला कर दिया। तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई को तुरंत वापस झांसी लौटना पड़ा। सुगिरा नरेश राव महीपत सिंह अकेले पड़ गए। चरखारी नरेश ने कार्नो का वेश बदलवाकर उसे पन्ना भेज दिया। इसके बाद चरखारी और फिरंगियों की संयुक्त सेना ने सुगिरा नरेश राव महीपत सिंह को गिरफ्तार कर लिया।

राव महीपत सिंह भूरागढ़ किले में फांसी पर झूले
राव महीपत सिंह को बांदा के भूरागढ़ किले में बंद किया गया। वहां उन्हें फांसी की सजा दी गई। अंग्रेजों ने उन्हें गुलामी स्वीकार करने और अपनी जान बचाने की सलाह दी। राव महीपत सिंह ने झुकना स्वीकार नहीं किया। वह अंत समय तक कहते रहे, मेरा बलिदान यहां के रजवाड़ों का स्वाभिमान जगाएगा। अब आजादी की लड़ाई और तेज होगी। वह हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए। यह घटना इतिहास के पन्ने में तो दर्ज नहीं हो पाई, पर बांदा के डिस्ट्रिक्ट गजेटियर में इसका संक्षिप्त ब्यौरा उपलब्ध है। राव महीपत सिंह इस इलाके में स्वाधीनता के लिए जान देने वाले पहले सेनानी थे। उनका किला आज भी सुगिरा गांव में है। पुरातत्व विभाग ने कहने के लिए किला संरक्षित तो कर लिया है, पर दुर्दशा में है। 

मेरठ से उठी चिंगारी ने बुंदेलों को सुलगाया
मेरठ की घटना सुनते ही बुंदेले रणबांकुरों की भुजाएं फड़कने लगीं। तत्कालीन अंग्रेज जनरल व्हिटलॉक बर्बरता पर उतर आया। मुकदमा दर्ज हुआ और 16 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई। मुख्यालय के हवेली दरवाजा में इमली के पेड़ पर ज्योरहा निवासी कल्लू और भवानी सहित 16 लोगों को लटकाकर अंग्रेजों ने क्रूरता की नजीर पेश की। जिले के गजेटियर में इस खौफनाक मंजर का जिक्र तो है, लेकिन फांसी के फंदों को चूमने वाले वीर सपूतों के नामों का जिक्र नहीं है। कल्लू और भवानी को छोड़कर बाकी की गिनती गुमनाम शहीदों में होती है। इतिहास के उस मूक गवाह इमली के पेड़ को लोगों ने काट दिया और बचा-खुचा गिर गया। इन शहीदों की स्मृति में पहले हवेली दरवाजा मैदान में मेला लगता था, जिसे दो दशक पहले बंद करवा दिया गया। अब बस ऐतिहासिक कजली मेले के अवसर पर विजय जुलूस निकला जाता है।

अंग्रेजों ने पर कीं बर्बरता की सीमाएं 
इतिहासकार तारा पाटकार बताते हैं कि 1857 की क्रांति के दौरान महोबा के लोग इस कदर एकजुट हुए कि अंग्रेज उलटे पांव दौड़ते नजर आए। क्या आम और क्या खास, हर महोबी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत कर रहा था। सत्तावनी क्रांति पर अध्ययन करने वाले प्रेमचंद्र साहू बताते हैं कि महोबा में आज़ादी की जंग आम और खास ने मिलकर लड़ी थी। अंग्रेजों ने हुकूमत का खौफ फैलाने के लिए शहर के हवेली दरवाजा मैदान में लगे इमली के पेड़ में सभी को एक साथ फांसी पर लटका दिया था।

राजाओं के बाद आम आदमी क्रांति में कूदा
महोबा में ऐतिहासिक गोरखगिरि पर्वत पर करीब डेढ़ हजार फीट ऊंचाई पर गोरों की समाधि है। इसका एक-एक पत्थर महोबा के आम जनमानस की बहादुरी की दास्तान सुनाता है। 1857 में जब महोबा में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत हुई तो यहां ब्रिटिश अफसर ग्रांट अपनी जान बचाने के लिए हमीरपुर की तरफ भागा। वहां उसकी हत्या हो गई। दूसरे अफसर कार्ने ने चरखारी के किले में शरण ली, लेकिन बाकी बचे पांच अंग्रेज अफसर अपनी जान बचाने के लिए गोरखगिरि पर्वत पर चढ़ गए, जहां जानवर चरा रहे चरवाहों ने उनकी हत्या कर दी। यह घटना बताती है कि आम आदमी अंग्रेजों के खिलाफ उस जंग में शरीक था।

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