महराजगंज का मसीहा, गुलामी में अंग्रेजों और जागीरदारों से तो आजादी में कांग्रेस से लड़ी जंग

आजादी का अमृत महोत्सव : महराजगंज का मसीहा, गुलामी में अंग्रेजों और जागीरदारों से तो आजादी में कांग्रेस से लड़ी जंग

महराजगंज का मसीहा, गुलामी में अंग्रेजों और जागीरदारों से तो आजादी में कांग्रेस से लड़ी जंग

Tricity Today | आजादी का अमृत महोत्सव

Noida Desk :आजादी हमें यूं ही नहीं मिली। इसके लिए हमारे पूर्वजों ने अपना सब कुछ त्याग दिया। वे स्वाधीनता के संघर्ष से जुड़े और बलिदान दिया। उन बलिदानियों के किस्से हमें आज भी रोमांच से भर देते हैं। गुलाम भारत की जितनी बड़ी समस्या ब्रिटिश हुकूमत थी, उससे बड़ी परेशानी भारतीय समाज में व्याप्त आंतरिक समस्याएं थीं। महात्मा गांधी इन दोनों गुलामी से देश को आजाद करवाने की जंग लड़ रहे थे। बापू के सिद्धांतों को मानने वाले शिब्बन लाल सक्सेना ऐसे ही स्वतन्त्रता सेनानी, शिक्षाविद और राजनेता थे। आजादी के बाद संविधान सभा के सदस्य और सांसद रहे। पेशे से डिग्री कॉलेज के अध्यापक शिब्बन लाल सक्सेना ने 1932 में महात्मा गांधी के आह्वान पर नौकरी छोड़कर पूर्ण रूप से राष्ट्रीय आन्दोलन में हिस्सा लिया। उन्होंने महराजगंज के किसानों और मजदूरों की सामाजिक-आर्थिक उन्नति के लिए कार्य किया। उन्हें महराजंगज का मसीहा कहा जाता है। आजादी के बाद उन्होंने कांग्रेस के खिलाफ बिगुल बजा दिया। खुद की राजनीतिक पार्टी बनाई और कांग्रेस के खिलाफ लड़कर चुनाव जीता था।

पोस्टमास्टर मामा के घर जन्म लिया
शिब्बन लाल सक्सेना का जन्म 13 जुलाई 1906 में अपने मामा के घर आगरा में हुआ था। इनके पिता का नाम छोटेलाल सक्सेना था, जो पोस्टमास्टर थे। इनकी माता का नाम बिट्टी रानी था। मूल रूप से बरेली में आंवला तहसील बल्लिया गांव के निवासी थे। शिब्बन लाल
का परिवार अपने समय में बल्लिया का एक समृद्ध परिवार था और काफी सम्मान था। दुर्भाग्य से शिब्बन लाल की माता का देहांत सात साल की उम्र में और फिर डेढ़ साल बाद ही पिता का देहांत हो गया। शिब्बन लाल और उनके दो छोटे भाई-बहन होरीलाल और प्रियंवदा को उनके मामा दामोदार लाल सक्सेना ने सहारा दिया। वह काफी मेधावी छात्र थे। सारी परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में स्वर्ण पदक के साथ उत्तीर्ण की थीं।

मामा ने उन्हें खूब पढ़ाया
शिब्बन लाल को उनके मामा ने उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय भेजा। उन्होंने 1927 में बीए की परीक्षा गणित और दर्शनशास्त्र विषयों के साथ स्वर्ण पदक के साथ उत्तीर्ण की। 1929 में एमए की परीक्षा स्वर्ण पदक के साथ गणित विषय में उत्तीर्ण की। 1930 में शिब्बन लाल गोरखपुर के सेन्ट एण्ड्रूयूज कॉलेज में गणित के प्रवक्ता बन गए। 1931 में उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र विषय से एमए की डिग्री हासिल की। शिब्बन लाल शुरू से स्वराज आंदोलन से काफी प्रभावित थे। जिसकी वजह से वह हमेशा लोगों की नजरों में चढे रहे। विश्वविद्यालय में एक बार किसी उत्सव में भाग लेने पहुंचे शिब्बन लाल ने शेरवानी पहनी थी। जिसे देखकर प्राचार्य ने उन्हें देशी पहनावा पहनने के लिए टोक दिया। शिब्बन लाल ने उसी समय से अंग्रेजी वेश-भूषा को त्यागने का प्रण किया। फिर आजीवन धोती और कुर्ता पहनते रहे। शिब्बन लाल पढ़ाई के साथ-साथ खेलों को पूरा महत्व देते थे। पहलवानी करते थे और विश्वविद्यालय में फुटबाल टीम के कप्तान थे।

13 साल की उम्र में निकाला पहला मोर्चा 
कानपुर में शिब्बन लाल आजादी की लड़ाई लड़ने लगे थे। 1919 में हुए जलियावाला बाग कांड ने जब पूरे भारत को हिलाकर रख दिया, तब कानपुर में शिब्बन लाल ने 13 वर्ष की उम्र में एक विरोध जुलूस का नेतृत्व किया और पकड़े गये। उस समय उन्हें तीन बेतों की सजा मिली। इस घटना ने उनका विश्वास और मजबूत बना दिया। 1930 में शिब्बन लाल ने कारखाना मजदूरों को एकत्र करके मालिकों की मनमानी का विरोध करना शुरू कर दिया। उसी समय महात्मा गांधी एक सभा में भाषण देने गोरखपुर आए थे। गांधी जी से उनकी पहली मुलाकात यहीं हुई। गांधी जी ने उन्हें कांग्रेस में आने की सलाह दी। जिसे शिब्बन लाल ने स्वीकार कर लिया। इसी घटना के कुछ दिन बाद शिब्बन लाल कांग्रेस के एक अधिवेशन में भाग लेने बनारस पहुंचे। गांधी जी ने एक बड़ी हृदय विदारक घटना के बारे में उन्हें बताया। जिसने शिब्बन लाल को पूरी तरह झकझोर दिया और उन्होंने महराजगंज जाने का निर्णय लिया।

महात्मा गांधी ने भेजा महराजगंज
अखबार में प्रकाशित एक खबर के अनुसार महात्मा गांधी ने बताया कि महाराजगंज में जमींदारों ने राजबली नाम के एक किसान को जिंदा जला दिया है। गांधी जी ने उस समय उपस्थित लोगों से महराजगंज की दयनीय हालत के बारे में चर्चा की और किसी को वहां जाकर जागृति फैलाने का अनुरोध किया। कोई जाने के लिये तैयार नहीं हुआ। अंत में शिब्बन लाल ने महाराजगंज जाकर वहां के लोगों को एक करने का बीड़ा उठाया। गांधी जी से आशीर्वाद लेकर प्रवक्ता पद से इस्तीफा दे दिया और महराजगंज आ गए।

किसान और मजदूरों का बुरा हाल था
उस वक्त महारजगंज गोरखपुर जिले की एक तहसील हुआ करता था। यहां कोई सुविधा नहीं थी। चारों ओर जमींदारों का आतंक था। जिनके खिलाफ बोलने की हिम्मत किसी में नहीं थी। ऐसे समय में जब शिब्बन लाल यहां आए तो उन्हें अपने साथ काम करने के लिए लोग नहीं मिले। गांव-गांव जाकर संगठन खड़ा किया और उन्हें जमींदारों के खिलाफ तैयार किया। गन्ना यहां की प्रमुख फसल थी। गन्ना किसानों के हक के लिए 1931 में ईंख संघ की स्थापना की। जिसका अस्तित्व आज भी है और जो सबसे पुराने संघों में से एक है। आगे चलकर संघ के आंदोलनों की वजह से केंन्द्रीय विधानसभा को गन्ना एक्ट लागू करना पड़ा था। शिब्बन लाल ने अपनी सफल हड़तालों की वजह से गन्ने का तत्कालीन मूल्य दो आना प्रति मन से पांच आना प्रति मन करवा दिया था।

पहले गन्ना किसानों की लड़ाई लड़ी
महराजगंज में उस समय जमींदार सारी जमीनों के मालिक होते थे, जिसे किसान जोतते थे और अन्न उगाते थे। किसान अपनी उपज का अधिकतर हिस्सा जमींदारों को लगान के रूप में दे देते थे। जिससे उनकी हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा था। गन्ना किसानों की बेहतरी
के लिये उन्होंने गन्ना उत्पादन नियन्त्रण बोर्ड की भी स्थापना की। महराजगंज शिब्बन लाल के नेतृत्व में जमींदारी प्रथा के उन्मूलन की दिशा में कदम बढ़ा रहा था। 1937 से लेकर 1940 तक शिब्बन लाल ने किसान आन्दोलनों से अंग्रेज सरकार की नाक में दम कर दिया। जिसकी वजह से सरकार को जमीनों का एक बार फिर सर्वे कराना पड़ा और जमीनों का पुनः आवंटन करना पड़ा। इस वजह से तत्कालीन महराजगंज के एक लाख पच्चीस हजार किसानों को उनकी जमीनों पर मालिकाना हक मिला था। किसानों को जमींदारों के चंगुल से आजादी मिली। अखबारों ने शिब्बन लाल को पूर्वी उत्तर प्रदेश का लेनिन कहकर संबोधित किया था। किसानों के जमीनों पर मालिकाना हक की इस व्यवस्था को गण्डेविया बंदोबस्त कहते हैं।

फिर बने मजदूरों के मसीहा
शिब्बन लाल ने न केवल किसानों के, बल्कि कारखाना मजदूरों के लिए काम किया। उस समय महाराजगंज प्रमुख गन्ना उत्पादक क्षेत्र था। यहां की घुघली, सिसवां, फरेन्दा चीनी मिलें उन्नत अवस्था में थीं, लेकिन इनके मजदूरों की हालत बड़ी खराब थी। शिब्बन लाल ने मिलों
में मजदूर संघ बनाए और इनके मालिकों के अत्याचारों पर लगाम लगाई। अपने विकास कार्यों और फौलादी इरादों की वजह से शिब्बन लाल इस क्षेत्र के लिए मसीहा बनकर उभरे। किसानों के लिए शिब्बन लाल का नारा हुआ करता था, अपने खेत के मेड़ पर डटे रहो, उसे हरगिज नहीं छोड़ो। 

मुखालफत में जमींदार और अंग्रेज एक हो गए
शिब्बन लाल पर जमींदारों और पुलिस का मिलाजुला पहला सशक्त हमला 1942 में हुआ, जिसमें शिब्बन लाल बचकर तो निकल गए, लेकिन उनके तीन कार्यकर्ता शहीद हो गए। शहीदों की याद में विशुनपुर गबड़ुआ नामक गांव में एक शहीद स्मारक बना हुआ है। यहां से निकलने के बाद शिब्बन लाल को गोड़धोवा गांव के बाहर जमींदार ने पकड़ लिया। वह शिब्बन लाल पर घोषित पुरस्कार को लेना चाहता था। जब गोड़धोवा गांव के जमींदार ने शिब्बन लाल को अपने आंगन में पकड़कर रखा था तो हरपुर महंथ का काजी वहां पहुंचा। उसने शिब्बन लाल सक्सेना को छोड़ने की मांग की। नहीं छोड़ने पर काजी ने जमींदार को गोली मार दी और उसकी वहीं पर मृत्यु हो गई। हरपुर महन्थ ने शिब्बन लाल को गोरखपुर के तत्कालीन कलेक्टर ईवीडी मॉस को सौंप दिया। उनको काल कोठरी में डाल दिया गया। वह 26 महीनों तक जेल में रहे। उन पर ना जाने कितने अत्याचार हुए, जिसकी वजह से शिब्बन लाल की ठीक तरह से बोलने की शक्ति जाती रही।

17 बार जेल गए और 13 साल कारावास काटा
साल 1946 में शिब्बन लाल संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य बने। आजादी के बाद महराजगंज के पहले सांसद बने। महाराजगंज को रेलवे लाइन से जोड़ने के लिए 1946 में ही प्रयास शुरू कर दिया था, लेकिन उनके उस प्रयास का लाभ महराजगंज को आज तक नहीं मिला है। आजादी के बाद उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। अपनी खुद की पार्टी बनाकर सांसद निर्वाचित हुए। वह महराजगंज से तीन बार सांसद चुने गए। अन्तिम बार वह 1976 में जनता पार्टी के टिकट पर सांसद चुने गए थे। शिब्बन लाल सक्सेना जीवनभर अविवाहित रहे। अपने 58 वर्ष के राजनीतिक जीवन में 17 बार गिरफ्तार किए गए थे और 13 वर्ष विभिन्न जेलों में बिताए। इनमें से 10 वर्ष कठिन कारावास की सजा अगस्त 1942 के गोरखपुर षडयन्त्र मामले में दी गई थी।

आजादी के बाद कई कॉलेज खोले
साल 1940 से पहले महराजगंज में कोई स्कूल नहीं था। चारों तरफ अशिक्षा का बोलबाला था। मुश्किल से कोई शिक्षित व्यक्ति मिलता था। शिब्बन लाल ने शिक्षा की कमी से होने वाली समस्या को समझा और 1940 में अपने गुरु गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम पर यहां का पहला स्कूल खोला। इसका वर्तमान नाम गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक इंटरमीडिएट कॉलेज है। 13 मार्च 1965 को उन्होंने पहला डिग्री कॉलेज आरम्भ किया। जिसका नाम जवाहर लाल नेहरू के नाम पर रखा। इसके बाद 24 मार्च 1972 को दूसरा डिग्री कॉलेज लाल बहादुर शास्त्री के नाम पर खोला। शिक्षा के क्षेत्र में शिब्बन लाल ने अलख जगाई। उन्होंने तीसरा डिग्री कॉलेज सिसवां के बीसोखोर में अपने पिता और मामा की याद में खोला। उसका नाम छोटेलाल दामोदर प्रसाद स्मारक डिग्री कॉलेज रखा। इस कॉलेज के नाम में शिब्बन लाल भी जुड़ गया है। उन्होंने शकुन्तला बाल विद्या मंदिर के नाम से एक जूनियर हाईस्कूल खोला।

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