आजादी का अमृत महोत्सव : सहाव के 300 गुमनाम शहीदों और बरजोर सिंह की दास्तान, अंग्रेज सेना ने घेरकर काट डाला था

Tricity Today | आजादी का अमृत महोत्सव



Uttar Pradesh : आजादी के लिए हुए गदर की बात हो और उसमें जालौन के कालपी व उरई का जिक्र ना आए, यह सम्भव नहीं है। बुन्देलखण्ड में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की जब भी चर्चा होती है तो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, राव साहब, बांदा के नवाब अलीबहादुर द्वितीय, तांत्या टोपे और बानपुर के राजा मर्दन सिंह आदि को ही याद किया जाता है। रानी झांसी और तांत्या टोपे की शहादत के बाद तमाम राजाओं ने हथियार डाल दिए थे। फिर भी बुन्देलखण्ड में क्रांति की आग सुलगती रही। जालौन के बरजोर सिंह और उनके साथी इन्दुरखी के दौलत सिंह कई वर्षों तक अंग्रेजी सत्ता से मुकाबला करते रहे। ऐसे ही सहाव के छतर सिंह थे। ये लोग लड़ मरे और गुमनामी की चादर ओढ़कर हमेशा-हमेशा के लिए सो गए।

अंग्रेजों ने अपनी रिपोर्ट में किया जिक्र
गदर के दमन में 5 सितंबर, 1858 की घटना बड़े मायने रखती है। उस दिन अंग्रेजों से लड़ते हुए जालौन के छोटे से गांव सहाव में करीब 300 क्रांतिकारियों ने अपनी जान न्यौछावर कर दी थीं। इस घटना का वर्णन इतिहासकारों ने नहीं किया है। इन शहीदों को कभी नाम नहीं मिल पाया। उस समय की ब्रिटिश मिलिट्री रिपोर्ट में इसका विवरण है। दरअसल, क्रांति के दमन के बाद अंग्रेज सरकार ने एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करवाई थी। इसका शीर्षक 'द रिवोल्ट इन सेंट्रल इंडिया कम्पाइल्ड इन द इनटेलीजेंस ब्रांच ऑफ आर्मी हेड क्वार्टर इंडिया डिवीजन ऑफ द चीफ ऑफ द स्टाफ (फॉर ऑफिशियल यूज ओनली)' था। भारतीय अभिलेखागार में यह रिपोर्ट एक किताब की शक्ल में मौजूद है। बुंदेलखंड के इतिहास पर काम करने वाले डा. डीके सिंह ने अपनी किताबों और दस्तावेजों में इसका जिक्र किया है। डॉ. सिंह के मुताबिक सत्तावनी क्रांति के बाद जब कोई नया चीफ आफ द आर्मी भारत में चार्ज लेता था, सबसे पहले इस रिपोर्ट को पढ़ता था। अगर यह रिपोर्ट ना होती तो इस घटना का किसी को पता तक नहीं चलता।

लंबरदार छतर सिंह ने उठाया था बीड़ा
 सहाव गांव की घटना गदर के दमन की है। मई 1858 के अंतिम सप्ताह में कालपी में क्रांतिकारियों की पराजय हो गई थी। राव साहब महारानी लक्ष्मीबाई के यहां से ग्वालियर चले गए थे। तब जालौन में नवनियुक्त डिप्टी कमिश्नर एएच टरनन ने समझा कि क्रांति का दमन हो गया है। मगर, यह उनकी भूल थी। सैनिकों के यहां से जाने के बाद क्रांति की कमान स्थानीय क्रांतिकारियों ने अपने हाथ में ले ली थी। उन्हीं में एक सहाव के लंबरदार छतर सिंह थे। आसपास के इलाकों में कई राजपूत अंग्रेजों पर रह रहकर हमले कर रहे थे।

चारों तरफ से घेरकर बमबारी की 
लंबरदार छतर सिंह ने सहाव की छोटी सी गढ़ी में स्थानीय क्रांतिकारियों को एकत्रित करना शुरू किया। दूसरी तरफ टरनन के खुफिया विभाग को खबर मिली कि सहाव की गढ़ी में 3000 विद्रोही एकत्रित हैं। वह जल्दी किसी बड़ी कार्रवाई को अंजाम देने की फिराक में हैं। जिले की पुलिस इतने क्रांतिकारियों का मुकाबला नहीं कर सकती है। टरनन ने कानपुर में सैन्य अफसरों के पास सूचना भेज दी। बताया कि सहाव की गढ़ी पर आक्रमण करने की जरूरत है। टरनन की अपील पर ब्रिटिश आर्मी ने यकायक सहाव पर आक्रमण कर दिया। ब्रिटिश मिलिट्री रिपोर्ट के पृष्ठ नंबर-183 और 184 पर सहाव के युद्ध का विस्तृत विवरण है। इस विवरण के अनुसार ब्रिगेडियर जे मैकडफ को सहाव पर आक्रमण की कमान सौंपी गई। वह अपनी ब्रिगेड के साथ राजपुर में था। उसके साथ कैप्टन ओमनी आरए, लेफ्टिनेंट कर्नल प्राइमरोज, लेफ्टिनेंट डिक, मेजर डेविस और रिसालदार मीर हसन अली ने चारों तरफ से गढ़ी को घेरा और गोले दागने शुरू कर दिए। मजबूरी में क्रांतिकारियों को गढ़ी से निकलना पड़ा। क्रांतिकारियों ने गढ़ी से निकलकर अंग्रेजों पर आक्रमण किया। सहाव से सरावन तक घमासान युद्ध छिड़ गया। क्रांतिकारी वीरता से लड़े, लेकिन ब्रिटिश अमले के सामने जीत पाना असम्भव था। अंत में पराजित हो गए।

करीब 300 क्रांतिकारियों को काट डाला
ब्रिटिश आर्मी रिपोर्ट में साफतौर पर लिखा है कि विद्रोहियों का कई मील तक पीछा किया गया। जब घोड़े थक गए और घने जंगल में दिखना बंद हो गया तो वापस लौटा पड़ा। इसके बाद राजपुर में इन विद्रोहियों को घेरा गया। ब्रिटिश आर्मी ने इनमें से करीब 300 को काट डाला और 21 को गिरफ्तार कर लिया गया। अंग्रेज सेना का लेफ्टिनेंट डिक गंभीर रूप से घायल हुआ। उसके केवल 17 सैनिक घायल हुए थे। दरअसल, क्रांतिकारियों के पास केवल दो गन थीं, जिनका वह सही ढंग से इस्तेमाल नहीं कर पर थे। दूसरी तरह अंग्रेजों ने 43वीं ब्रिगेड, सिख घुड़सवार, 8वीं अनियमित घुड़सवार सेना और दूसरी ब्रिगेड की पैदल पलटन थीं, जिनके पास मैचलॉक बंदूकें और कई हल्की तोप थीं। जिनका सामना करना भारतीय तलवारबाजों के बूते की बात नहीं थी।

कोई लाशें उठाने तक नहीं पहुंचा
डा. डीके सिंह के मुताबिक, इन शहीद क्रांतिकारियों के शरीर युद्ध भूमि में यूं ही कई दिनों तक पड़े रहे। डर के मारे कोई उनको लेने आगे नहीं आया। इस वजह से आज तक इनकी पहचान नहीं हो सकी। कई दिनों के बाद डिप्टी कलेक्टर टरनन ने उन सारी लाशों को नदी में प्रवाहित करवा दिया था। भारतीयों ने कभी इनका इतिहास नहीं लिखा। अगर ब्रिटिश आर्मी की यह रिपोर्ट वर्ष 1908 में प्रकाशित नहीं होती तो शायद सहाव की लड़ाई और शहीदों का किसी को पता नहीं चलता।
 
बरजोर सिंह पर घोषित हुआ 2000 का ईनाम
अमींटा बिलायां परिवार के दीवान बरजोर सिंह बुंदेलखंड के महान क्रांतिकारी रहे, जिन्होंने सबसे लंबी अवधि तक अंग्रेजों से संघर्ष किया। उन्हें बार-बार खदेड़ा, छकाया और लम्बे अरसे 1859 के मध्य तक अंग्रेजी सेना की नाक में दम करके रखा। पहली अप्रैल 1858 को झांसी में पराजय के बाद जब झांसी की रानी ने कालपी की ओर प्रस्थान किया, तब उन्होंने बरजोर सिंह से बिलायां में भेंट की। 22 मई 1858 को कालपी के संघर्ष में बरजोर सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका थी। उन्होंने गांव-गांव संपर्क किया। आर्थिक संसाधन जुटाए।

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