आज़ादी का अमृत महोत्सव : औरैया के पहलवान बने क्रांतिकारी, भारतवीर और ज़िंदा शहीद

Tricity Today | आज़ादी का अमृत महोत्सव



Uttar Pradesh : भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के सुनहरे पन्नों में 9 अगस्त 1925 की तारीख दर्ज है। शायद आपको याद होगा उस काकोरी कांड हुआ था। उत्तर प्रदेश के औरैया में काकोरी के पास ट्रेन और स्टेशन को लूटकर आजादी के दीवानों ने ब्रिटिश हुक्मरानों की नीद उड़ा दी थी। उस की घटनाओं में काकोरी काण्ड अंग्रेजों के लिए ना केवल शर्मनाक बल्कि इसकी धमक लंदन तक पहुंची थी। कांड में औरैया का एक युवा मुकुन्दी लाल भी शामिल था। जिसकी दिलेरी ने चंद्रशेखर आजाद तक को प्रभावित किया था।

पहलवान थे मुकुंदी लाल गुप्ता, आजाद ने दी भारतवीर की उपाधि
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आजादी का आंदोलन देश के हर व्यक्ति के लिए जीने-मरने का विषय बन गया था। एक ही जुनून सवार था, किसी भी कीमत पर देश को आजाद कराना है। औरैया के क्रांतिकारी मुकुन्दी लाल गुप्ता ने काकोरी के नायकों के साथ ट्रेन लूट की घटना को अंजाम दिया था। औरैया के एक संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार से होने के बावजूद मुकुंदीलाल ने क्रांति के मार्ग पर चलना तय किया था। पिता नहीं रहे तो वह ज्यादा पढ़-लिख नहीं पाए। खाना, मुगदर घुमाना और कुश्ती लड़ना ही उनकी दिनचर्या थी। पुलिस किसी को तंग करती तो वह प्रतिरोध में तनकर खड़े हो जाते। यहां के एक स्कूल में अध्यापकी कर रहे गेंदालाल दीक्षित से उनका संपर्क हो गया था, जो क्रांतिकारियों की ‘मातृवेदी’ संस्था चला रहे थे। बस, उन्हें रास्ता मिल गया। बताया जाता है अंग्रेजी हुकूमत का खजाना लूटा गया तो वह बॉक्स बहुत वजनदार था। कोई उसे उठा नहीं पा रहा था। तब पहलवान मुकुन्दी लाल उस बक्से को अकेले उठाकर आठ किलोमीटर तक पैदल ले गए थे। बॉक्स का ताला भी उन्होंने एक वार में तोड़ दिया था। क्रांतिकारियों ने उसी खजाने से हथियार खरीदकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। मुकुन्दी लाल के योगदान ने खुश होकर महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद ने उन्हें भारतवीर की उपाधि दी थी।

मैनपुरी षड्यंत्र काण्ड में गुरु-चेला दोनों गए थे जेल
आजादी की लड़ाई में जहां बड़े-बड़े देशभक्तों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था, वहीं औरैया के मुकुंदीलाल गुप्ता ने अपने गुरु पंडित गेंदालाल दीक्षित से प्रेरित होकर महती भूमिका अदा की थी। आपको बता दें कि गेंदालाल दीक्षित को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अप्रतिम योद्धा, महान क्रान्तिकारी और उत्कट राष्ट्रभक्त माना जाता है। उन्होंने आम आदमी की बात तो दूर, डाकुओं तक को संगठित करके ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खड़ा कर दिया था। दीक्षित जी उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों के द्रोणाचार्य कहे जाते थे। उन्हें मैनपुरी षड्यन्त्र का सूत्रधार समझकर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। किन्तु वह अपनी सूझबूझ और प्रत्युत्पन्न मति की बदौलत जेल से निकल भागे। साथ में एक सरकारी गवाह को भी ले उड़े थे। सबसे मजे की बात यह कि पुलिस ने सारे हथकण्डे अपना लिये परन्तु उन्हें अन्त तक खोज नहीं पाई। आखिर में कोर्ट को उन्हें फरार घोषित करके मुकदमे का फैसला सुनाना पड़ा था। काकोरी कांड से पहले पंडित गेंदालाल दीक्षित के साथ मुकुंदीलाल गुप्ता को भी मैनपुरी षड़यंत्र कांड में पुलिस ने गिरफ्तार किया था। इस सिलसिले में वर्ष 1918 में उन पर मुकदमा चला, जिसमें क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने के कारण मुकुंदीलाल को छह वर्ष का कठोर कारावास हुआ था।

मैनपुरी षड्यंत्र से छूटे तो काकोरी काण्ड में जुट गए
जेल से मुक्त होने के बाद मुकुंदीलाल क्रांतिकारी गतिविधियों में निरंतर भाग लेते रहे। पुलिस इनके परिवार को परेशान करने लगी थी। ऐसी स्थिति में अपने को सुरक्षित रखने के लिए उनका परिवार झांसी चला गया और वहां व्यापार करने लगा था। आजादी के दीवाने मुकुंदीलाल ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जंग जारी राखी। मैनपुरी कांड में जिन युवकों को सजा दी गई थी, उन सबको खोजकर संपर्क करना शुरू कर दिया। इस अभियान में क्रांतिकारी शतींद्र नाथ बक्सी उनके साथ थे। चूंकि झांसी पहले से ही क्रांतिकारियों का गढ़ था, इसलिए इन दोनों का संपर्क बढ़ता गया था। शतींद्र नाथ के प्रयास से भारतवीर मुकुंदीलाल क्रांतिकारी दल 'हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ' से जुड़ गए। संघ के माध्यम से उन्होंने काकोरी कांड की योजना तैयार की थी। 9 अगस्त 1925 को मुकुंदीलाल गुप्त ने साथियों के साथ काकोरी में ट्रेन के डिब्बे के पास खड़े होकर फायर किए थे। इस कांड में चार जर्मन माउजर इस्तेमाल किए गए थे। जिससे कोई यात्री नीचे न उतर सके।

क्रांतिकारियों के बीच ‘जिंदा शहीद’ के नाम से हुए मशहूर
मुकुंदीलाल इस देश के ‘जिंदा शहीद’ थे। काकोरी की घटना के बाद फरार होने पर वह अजमेर, कानपुर और जाने कहां-कहां भटकते-घूमते 17 जनवरी 1926 को बनारस के पुस्तकालय में पुलिस के हाथ आ गए। उन्हें लखनऊ में चल रहे काकोरी मुकदमे में लाया गया, जहां जेल में सख्ती होने पर उन्होंने मेडिकल ग्राउंड पर विशेष व्यवहार के लिए भूख हड़ताल की। काकोरी मुकदमे में उन पर कई गंभीर अभियोग थे, जिसमें सजा के बाद बरेली केंद्रीय कारागार में भेजे जाने पर उन्होंने वहां मन्मथनाथ गुप्त, शचींद्रनाथ बख्शी और राजकुमार सिन्हा के साथ राजनीतिक कैदियों के अधिकार के लिए अनशन में मृत्यु के नजदीक पहुंचकर भी जीत हासिल की। 6 अप्रैल 1927 को न्यायाधीश ने मुकुंदीलाल गुप्त को आजीवन काले पानी की सजा सुनाई।

पंडित नेहरू के घर आचार्य कृपलानी से भिड़ गए थे
1937 में सूबे में कांग्रेसी मंत्रिमंडल बना और बड़ी संख्या में क्रांतिकारियों को सरकार ने रिहा कर दिया। रिहाई के बाद इलाहाबाद में जवाहरलाल नेहरू ने काकोरी बंदियों का भव्य स्वागत किया था। सभी को ‘आनंद भवन’ की दूसरी मंजिल पर ले जाया गया। नेहरू ने वहां चाय-पानी से पहले एक स्वागत भाषण दिया। उस समय तक मुकुंदीलाल अंदर नहीं पहुंच पाए थे। किसी से बातचीत करते-करते वह बाहर ही रह गए। वहीं खड़े आचार्य कृपलानी अपने साथियों से कह रहे थे, ‘देखो, इस जवाहरलाल की मति मारी गई है। इन जेल से छूटे हुए डाकुओं का कैसा स्वागत कर रहा है। गांधी यहां आकर देख ले, तो क्या बोलेगा।’ मुकुंदीलाल, कृपलानी को नहीं जानते थे। सुनकर वह तमतमा गए। आस्तीनें चढ़ाते हुए वह बोले, ‘हिम्मत हो, तो फिर ऐसी भाषा बोलिए।’ वह कृपलानी की तरफ लपके, तभी लोगों की निगाहें उन पर पड़ीं और उन्हें किसी तरह संभाल लिया।"

'भारत छोड़ो आंदोलन' में 7 साल सजा हुई और फिर गुमनाम मौत
जेल से रिहा होते ही मुकुंदीलाल ने 1942 के स्वाधीनता आंदोलन में सक्रियता से भाग लेना शुरू कर दिया। इस दौरान 'भारत छोड़ो आंदोलन' में एक बार फिर से वह अंग्रेजी पुलिस के हत्थे चढ़ गए, जिसमें उन्हें 7 वर्ष के सश्रम कारावास की सजा हुई। आजादी के बाद वह फिर जेल से मुक्त हुए। पर गुजरते समय के साथ लोगों ने उनकी ओर से मुंह फेर लिया। एक समय ‘भारतवीर’ कहे जाने वाले इस शख्स से किसी ने उनका हाल-चाल भी नहीं पूछा। औरैया की गुमनाम बस्ती भी अब नहीं जानती कि 1972 में कानपुर के एक अस्पताल में अंतिम सांस लेने वाले इस क्रांतिकारी ने अपने अंतिम दिन किस बदहाली में बिताए थे। औरैया के शहीद स्मारक में उनका एकमात्र यादनामा पेश है। कुछ वर्ष पहले बरेली केंद्रीय कारागार में उनके नाम पर एक बैरक का नामकरण, स्मृति-पटल और चित्र लगवाया गया है।

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