आज़ादी का अमृत महोत्सव : कोतवाली पर लटका दिया गया था मौलवी का सिर, पढ़िए शहजहांपुर के ऐसे शेर की कहानी, जिससे अंग्रेजी हुकूमत थर्राती थी

Tricity Today | आज़ादी का अमृत महोत्सव



Uttar Pradesh : 1857 की जंग में अंग्रेजों ने भारतीयों के हौसले और राष्ट्रवाद पर कुठाराघात किया था। क्रांतिकारियों की बर्बरतापूर्ण हत्याएं कीं। आम जनमानस को खौफजदा करने के लिए क्या नहीं किया गया था। जिससे फिर कोई अंग्रेजों के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाए। इस जंग में हिन्दू हुए मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर लड़े थे। अंग्रेजों ने इस युद्ध के बाद दोंनो फिरकों को लड़ाया। उत्तर प्रदेश की तराई में शाहजहांपुर जिले के लोधीपुर गांव में स्वाधीनता संग्राम की पहली लड़ाई का एक ऐसा शेर सोया हुआ है, जिसके साहस से अंग्रेजी हुकूमत थर्राती थी। अंग्रेजों के खौफ का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 15 जून 1858 को क्रांतिकारी मौलवी अहमद उल्लाह शाह की पुवायां के पास जब शहादत हुई तो उनका सिर धड़ से अलग कर दिया गया। सिर को कोतवाली के गेट पर लटका दिया गया ताकि कोई बगावत की हिम्मत न जुटा सके। लेकिन क्रांति की धारा इतनी तेज थी कि कुछ नौजवान कोतवाली से उनका सिर उठा ले गए। जनमानस ने लोधीपुर में उन्हें दफनाया गया है। उनकी मजार पर हिन्दू और मुसलमान, सभी सज़दा करते हैं।

डंका शाह के नाम से थे मशहूर, साधु थे उनके गुरु
गदर के इतिहास में मौलवी अहमद शाह का उल्लेख डंकाशाह के नाम से है। ऐसा कहा जाता है कि अहमद शाह जब चला करते थे तो उनके आगे डंका बजता चलता था। मौलवी अहमद शाह के गुरु एक साधु थे, जिन्होंने उन्हें स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने की शपथ दिलाई थी। 'अवध ऐब्सट्रैक्ट प्रोसीडिंग पोलिटिकल' में इस बात का जिक्र है। मौलवी का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि लोग सहज ही उनकी ओर आकर्षित हो जाते थे। उनके भाषणों से आग बरसती थी। फैजाबाद, रायबरेली, उन्नाव, सीतापुर, लखनऊ शाहजहांपुर, मेरठ और आगरा आदि जिलों में मौलवी का तूफानी दौरा हुआ। अंग्रेजों ने उन्हें इतना खतरनाक समझा कि फरमान जारी कर दिया कि लखनऊ और आगरा में वह घुसने न पाएं।

अवध पुलिस ने मौलवी को गिरफ्तार करने से किया इंकार
अंग्रेजों ने मौलवी और उनके समर्थकों को हथियार डालने को कहा। जब मौलवी ने बात नहीं मानी तो अंग्रेजों ने प्रलोभन देना शुरू किया। इस पर भी वह नहीं मानें तो उनकी गिरफ्तारी के आदेश जारी किए गए। लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता की स्थिति ऐसी थी कि अवध पुलिस ने उनको गिरफ्तार करने के आदेश को ही मानने से इनकार कर दिया था। फिर अंग्रेज फौज ने आकर 19 फरवरी, 1857 को गिरफ्तार किया था। उन्हें जंजीरों में बांधकर घुमाया गया और मुकदमे के नाटक के बाद फांसी की सजा सुना दी गई। इतिहासकार कृष्ण प्रताप के मुताबिक, 8 जून 1857 को बगावत की लपटें फैजाबाद पहुंचीं तो शहर की बहादुर जनता और बागी देसी फौज ने जेल पर हमला करके वहां बंद मौलवी को छुड़ा लिया। फिर तो सबने मिलकर अपने इस प्रिय नेता को अपना मुखिया चुना और उसकी आमद में तोपें दागीं। भरपूर जश्न के बाद मौलवी ने बागी फौज की कमान संभाल ली और फैजाबाद को अंग्रेजों के पंजों से आजाद कराने के बाद राजा मान सिंह को उसका शासक बनाया। इसके पीछे भी उनकी हिन्दू-मुस्लिम एकता की सोच ही काम कर रही थी।

मौलवी ने लखनऊ पर कब्जा कर बिरजिस को बनाया नवाब
30 मई 1857 को लखनऊ में क्रांति की शुरुआत हो गई थी। फ़ैजाबाद से छूटकर मौलवी अहमदशाह लखनऊ पहुंचे। अंग्रेज घबरा गए। मौलवी से मोर्चा लेने के लिए 10 तोपों, 150 घुड़सवार और 500 पैदल पल्टन लगाई गई। जिसकी कप्तानी अंग्रेज अफसर लॉरेंस ने की थी, लेकिन अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ी। क्रांतिकारियों की यह बहुत बड़ी जीत हुई थी। पूरा लखनऊ उन्होंने अपने कब्जे में ले लिया। वह चाहते तो लखनऊ के शासक बन जाते, पर उन्होंने ऐसा नही किया। लोगों ने जब प्रस्ताव रखा तो उनका उत्तर था, "नहीं मैं तो फकीर हूं, फकीरों का सल्तनत से किया रिश्ता?" इसके बाद बिरजिस कद्र को वहां का शासक नियुक्त किया गया था। कुछ दिनों बाद फिर भयानक युद्ध हुआ। जिसमें मौलवी हार गए। इसके बाद वह और नाना साहब पेशवा शाहजहांपुर गए।

लखनऊ का पतन हुआ तो शाहजहांपुर का रुख किया
मौलवी ने तत्कालीन आगरा और अवध प्रांत में घूम-घूमकर क्रांति की ज्वाला जगाई थी। लखनऊ में रेजीडेंसी के घेरे और चिनहट की लड़ाई में उन्होंने जिस कुशलता का परिचय दिया, उसे देखते हुए इतिहासकारों ने लिखा है कि लखनऊ नगर के अंदर क्रांति के सबसे योग्य नेता वही थे। होम्स ने उनको ‘उत्तर भारत में अंग्रेजों का सबसे जबरदस्त शत्रु’ बताया है। जब बागी कमजोर पड़ने लगे तो मौलवी ने उन्हें छापामार लड़ाई की रणनीति अपनाने को कहा था। 15 जनवरी 1858 को गोली से घायल होने के बावजूद मौलवी का मनोबल नहीं टूटा और लखनऊ के पतन के बाद भी उन्होंने शहादतगंज मुहल्ले में विजयोन्माद से भरी अंग्रेज सेना से दो-दो हाथ किए। बगावत की विफलता के बाद भी मौलवी शाहजहांपुर को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया और अंग्रेजों की नाक में करके रखा। उन्हें पकड़ने और मार देने की कई साजिशें असफल रहीं।

मौलवी की बदौलत अंग्रेज हिन्दू-मुस्लिम एकता नहीं तोड़ पाए
अवध के सांस्कृतिक इतिहास के जानकार कृष्ण प्रताप सिंह के मुताबिक, अंग्रेज अगर उन दिनों किसी भी तरह अवध की हिन्दू-मुस्लिम एकता नहीं तोड़ पाए, तो इसका सर्वाधिक श्रेय इन मौलवी को ही है। उन्होंने रायबरेली शंकरपुर के राणा बेनीमाधो सिंह के साथ मिलकर एकता की बेल को भरपूर सींचा। उन दिनों बगावत के न्यौते के तौर पर रोटी और कमल का फेरा लगवाने की युक्ति मौलवी की ही थी। किसी गांव या शहर में बागियों की तरफ से जो रोटियां आती थीं, उन्हें खाने के बाद वैसी ही ताजी रोटियां बनवाकर कमल के साथ दूसरे गांवों या शहरों को रवाना कर दी जाती थीं। यह क्रांति में भागीदारी का प्रतीक था।

पुवायां के राजा ने सिर काटकर अंग्रेजों को दिया
अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों का पीछा किया। शाहजहांपुर में जमकर संघर्ष हुआ। नाना साहब ने शहर की कई इमारतों को आग लगा दी। कुछ अधिकारियों ने पुवायां रियासत के राजा जगन्नाथ सिंह के यहां शरण ली। अंतत: अंग्रेजी सेना क्रांतिकारियों पर भारी पड़ी। लेकिन न मौलवी उनके हाथ आए और न नाना साहब। मौलवी मोहम्मदी की ओर निकल गए। उन्होंने जगन्नाथ सिंह से बदला लेने की ठानी। एक दिन हाथी पर सवार होकर दलबल के साथ पुवायां की गढ़ी पर पहुंचे तो वहां फाटक बंद था। राजा ने अपने भाई बल्देव सिंह को उनके पास भेजा। मौलवी ने कहा कि आपके यहां शरण लिए हुए अंग्रेजों को सौंप दें। राजा के इनकार कर दिया। मौलवी को गुस्सा आ गया। उन्होंने महावत को गेट तोड़ने का आदेश दिया। इसी वक्त बल्देव ने झरोखे से गोली चला दी और मौलवी अहमद शाह शहीद हो गए। उनकी मौत के बाद राजा जगन्नाथ सिंह और अंग्रेज अफसरों ने तलवार से उनका सिर काट लिया और रुमाल में लपेटकर जिला मजिस्ट्रेट के पास पहुंचे। जिला मजिस्ट्रेट ने उन्हें 50 हजार का इनाम दिया। दरअसल, अंग्रेज हुकूमत ने मौलवी डंकाशाह के सिर पर उस वक्त 50 हजार ईनाम रखा था। अंग्रेजों ने सिर को शाहजहांपुर की कोतवाली पर लटका दिया। कुछ देशभक्तों ने जान पर खेलकर मौलवी के सिर को वहां से उतारा और पास के लोधीपुर गांव के एक छोर पर पूरी श्रद्धा व सम्मान के साथ दफन कर दिया।

नाना साहब ने मुखबिरों की कोठी में लगवाई थी आग
जब नाना साहब शाहजहांपुर पहुंचे तो क्रांतिकारी गतिविधियों की सूचना एक कोठी में रहने वाले कुछ लोगों ने अंग्रेजों को पहुंचाई। गुलाम कादिर खां को जब यह जानकारी मिली तो उन्होंने नाना साहब को बताया। इसके बाद नाना साहब ने उस कोठी में आग लगवा दी। तभी से वह जली कोठी कही जाने

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