आज़ादी का अमृत महोत्सव : अनाथ जुगल किशोर बन गए भारत माता के बेटे

Tricity Today | आज़ादी का अमृत महोत्सव



Uttar Pradesh : आजादी की लड़ाई में कन्नौज जिले का योगदान अविस्मरणीय है। यहां के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की कुर्बानियां किसी से कम नहीं हैं। तरह-तरह के जुल्म सहे, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। ऐसे ही जुगल किशोर सक्सेना थे। कन्नौज के स्वतंत्रता सेनानियों पर लिखी एक किताब में उनकी हिम्मत की दास्तान दर्ज है। अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि जुगल किशोर सक्सेना को अंग्रेजों ने बस्ती जेल में बंद कर दिया और मई-जून के महीने में टीन की छत के नीचे रखा था। आजादी के इस दीवाने ने हौसला नहीं छोड़ा और वंदेमातरम के नारों से जोश कायम रखा। आजादी की लड़ाई में इस इलाके के सूरमाओं ने फिरंगियों को कभी पीठ नहीं दिखाई।

महज 16 साल की उम्र में सत्याग्रह चुना
जुगल किशोर सक्सेना के पिता बटेश्वर दयाल और मां धनु कुंवर थीं। जून 1924 में उनका जन्म डड़ौना गांव में हुआ था। जन्म के ढाई साल बाद ही उनकी मां चल बसीं। मां की तेरहवीं भी नहीं हो पाई थी कि पिता भी साथ छोड़ गए। जुगल किशोर सक्सेना के कोई भाई-बहन नहीं थे। परिवार के अन्य लोगों ने इनका पालन किया। वह मिडिल स्कूल तक पढ़ पाए। अनाथ होने के कारण आगे की पढ़ाई नहीं की। महज 16 साल की उम्र में वह महात्मा गांधी के अनुयायी हो गए और सत्याग्रह आंदोलन में कूद पड़े। दिल्ली जाते समय पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इन्हें मैनपुरी जेल ले जाया गया, जहां कैदियों को जली रोटियां खाने के लिए मिलती थीं। इसका विरोध करने के लिए अगुआ बन गए। अन्य कैदी भी जुगल किशोर सक्सेना के साथ हो लिए। नाराज जेलर ने उन्हें बस्ती जेल भेज दिया। यह जेल टीन की थी। मई-जून की भीषण गर्मी में इन्हें 24 घंटे में एक तसला पानी दिया जाता था। इसमें ही सभी जरूरतें पूरी करनी होती थीं।

77 वर्ष की उम्र में कैंसर से हुई मृत्यु
भीषण गर्मी और पानी की कमी के कारण जुगल किशोर सक्सेना की हालत खराब होने लगी। उनके शरीर में दाने निकल आए। इस पर गोरों ने उनसे लिखित माफी मांगने की बात कही और सजा माफ करने का प्रलोभन दिया। मगर, जुल्म सहते रहे और हार नहीं मानी। छह माह की सजा काटने के बावजूद उनके तेवरों में कमी नहीं आई। 77 वर्ष की उम्र में कैंसर से जूझते हुए 22 मई 2001 को जुगल किशोर सक्सेना की मृत्यु हुई। उनके पुत्र सुप्रभाष सक्सेना ने आजादी के इतिहास पर एक किताब लिखी थी। उसमें यहां के सपूतों की गाथा लिखी है। पौत्र हिमांशु सक्सेना ने अपने बाबा से जुड़ी यादों को बहुत ही कायदे से संजो कर रखा है।

सरकार पर उपेक्षा का आरोप
हिमांशु सक्सेना कहते हैं, दादा जी प्रसिद्ध क्रांतिकारी रामस्वरूप और मन्मनाथ से प्रभावित थे। वह क्रांतिकारियों की टोली में शामिल हो गए। अंग्रेजों की डाक लूट ली। उन पर मुकदमा दर्ज किया गया। पुलिस उन्हें तलाशने लगी। वह जंगल में घुस गए। भूखे प्यासे घूमते रहे। जान बचाने के लिए नमक चाटकर दिन काटे थे। अंततः पकड़े गए और जेल भेज दिए गए। हिमांशु सक्सेना कहते हैं कि अब सरकार और प्रशासन फ्रीडम फाइटरों को भूल गए हैं। उनकी यादों को संजोने के लिए कोई प्रयास नहीं हो रहा है

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