आजादी का अमृत महोत्सव : मुल्क बदर नवाब ने भीख पर काटी उमर

Tricity Today | आजादी का अमृत महोत्सव



Uttar Pradesh : सत्तावनी क्रांति ने बड़े-बड़े नवाबों और राजाओं का सब कुछ छीन लिया था। बहुतेरों को तो मुल्क छोड़ना पड़ा। कई की बाकी जिंदगी जेलखानों और तहखानों में कटी। कुछ ताउम्र बेड़ियों और हथकड़ियों में जकड़े रहे। अंग्रेजों ने उनके बच्चों और परिवारों को नजीर बनाने के लिए सड़कों पर ठोकरें खाने छोड़ दिया था। ऐसे ही फर्रुखाबाद के आखिरी नवाब तफ़ज़्ज़ुल हुसैन ख़ान थे। वह 1846 से 1858 तक फर्रुखाबाद रियासत के नवाब रहे। नवाब तफ़ज़्ज़ुल हुसैन ख़ान को अंग्रेज़ो ने जंग-ए-आज़ादी की पहली लड़ाई में क्रांतिकारियों की मदद करने के जुर्म में सज़ाए मौत दी थी। बाद में ये सज़ा घटा दी गई और उन्हें मुल्क बदर कर अदन भेज दिया गया। जहां से वह मक्का गए और वहीं 19 फ़रवरी 1882 को उनका इंतक़ाल हो गया। 

अंग्रेजों ने पहले मौत की सजा सुनाई फिर किया मुल्क बदर
सेलेक्शन फ्रॉम द पोएट्री ऑफ द अफगांस के लेखक मेजर रवेटरी फर्रुखाबाद के नवाब तफ़ज़्ज़ुल हुसैन ख़ान की ग़िरफ़्तारी और मुल्क बदरी को कुछ यूं लिखते हैं, मुझे वो वक़्त याद है जब मैं पंजाब में तैनात था और मेरे ही रेजिमेंट के सिपाही फर्रुखाबाद के नवाब
तफ़ज़्ज़ुल हुसैन ख़ान को बेड़ियों से जकड़े हुए हिन्दुस्तान के पश्चिम इलाक़े नासिक की ग़लियों से गुज़ार रहे थे, ताकि उन्हें मक्का भेजा जा सके। मेजर रवेटरी आगे लिखते हैं, अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ बग़ावत में हिस्सा लेने के जुर्म में उन्हें पहले मौत की सजा दी गई। फिर सजा घटाकर मुल्क बदर कर दिया गया। लिहाजा, भारत से दूर समंदर में अदन की खाड़ी में भेज दिया गया। उन्होंने अंग्रेजों से मांग रखी कि मक्का भेज दें। नवाब साहब की ख़्वाहिश पर मक्का भेजने का फ़रमान जारी किया गया। उनकी रवानगी के इंतज़ामात की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी गई। 

मुल्क चुनने की इजाजत अंग्रेजों ने दी, मक्का भेज दिया
जब बाद में तफ़ज़्ज़ुल हुसैन ख़ान को जिला वतनी करने की सज़ा सुनाई गई तो उन्हें मौक़ा दिया गया कि जिला वतनी के लिए वह ख़ुद मुल्क का चुनाव कर लें। जिस पर नवाब साहब ने मक्का जाने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की और अंग्रेज़ी हुकुमत ने उनकी ख़्वाहिश पूरी कर दी।
रवेटरी ने अपनी किताब में लिखा है, नासिक की गलियों में मैंने उनसे कुछ देर बात की। जिसे उसने ग़ौर से सुना फिर कहने लगा एक ज़माने तक मैं ये समझता रहा कि मैं ही सब कुछ हूं, लेकिन जब बदनसीबी घर में बसेरा कर ले तो इंसान सिवाय तबाही और बर्बादी के
और क्या तवक़्क़ो कर सकता है? नवाब साहब तीस साल के उमर के एक ख़ूबसुरत मगर थोड़े से बेवक़ूफ़ इंसान थे। उस वक़्त वो मुझे एक बदनसीब और दिल शिक्सात इंसान नज़र आ रहे थे। 

भाइयों और साथियों को खुलेआम फांसियां दी गईं
इतिहासकार कहते हैं कि तफ़ज़्ज़ुल हुसैन ख़ान के भाई नवाब सखावत हुसैन खां और इकबालमंद खां को खुले बाजार में पीपल व इमली के पेड़ों पर फांसी दी गई थी। अंग्रेजों के जुल्म के आगे फर्रुखाबाद के हिदू और मुसलमानों ने एकजुट होकर संघर्ष किया था। गदर को दबाने के बाद फर्रुखाबाद में खूनी मंजर था। लोगों में दहशततारी करने के लिए अंग्रेजों ने मऊदरवाजा से घुमना तक मुख्य मार्ग पर पेड़ों पर फांसी दीं। पेड़ों पर लटकी लाशें दिखती थीं। कई दिनों तक लाशों को उतारने नहीं दिया और शहर का बाजार खोल दिया गया था। नवाब तफ़ज़्ज़ुल हुसैन ख़ान नाम के ही अफगान थे। क्योंकि उनकी पिछली नस्ल सदियों से हिन्दुस्तान में रहकर पूरी तरह यहीं घुल मिलकर बिलकुल बदल गई थी। मेजर ने अपनी किताब में यह भी लिखा है ​कि बाद में मुझे पता चला कि मक्का में उनका गुज़र बसर ख़ैरात और सदक़ात पर होता है। दूसरी ओर फर्रुखाबाद में उनका परिवार छूट गया था। उनके वारिस आज भी फर्रुखाबाद में हैं। 27 दिसंबर 1714 को नवाब मोहम्मद खां बंगश ने यह शहर बसाया था। 1857 में अंग्रेजों से जंग लड़ने वाले तफज्जुल हुसैन उनकी पीढ़ी में आखिरी नवाब थे। फिलहाल इनके वारिस को निजी ठिकाना तक मयस्सर नहीं है। एक प्राइवेट नौकरी करके गुजर-बसर करने वाले नवाबी परिवार के इस चिराग की पेंशन
बंद है। इसके लिए लड़ाई लड़ रहे हैं।

कांशीराम कॉलोनी में रहते हैं नवाब के वारिस
तफज्जुल हुसैन के वारिस नवाब काजिम खां बंगश परेशानियों में गुजर कर रहे हैं। 1952 में रियासत जब्त हो गई। इनके दादा नवाब असगर हुसैन को मोहल्ला खैराती खां में पुश्तैनी महल बेचना पड़ गया। रहने का आखिरी ठिकाना परिवार के हाथ से चला गया। 2010 में कांशीराम कॉलोनी में घर पाने के लिए भी इन्हें संघर्ष करना पड़ गया। नवाब काजिम खां बंगश के वालिद नवाब फितनत हुसैन को नवाबी और राजनैतिक पेंशन मिलती थी। सन् 1972 में उनके इंतकाल के बाद वारिसों को पेंशन मिलनी बंद हो गई।

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