Tricity Today | एनपी सिंह ने राष्ट्रपति रामनाथ को भेंट की किताब
New Delhi : सेवानिवृत्त आईएएस, समाजसेवी और भारतीय संस्कृति के विवेचक एनपी सिंह ने शुक्रवार को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मुलाकात की। सिंह ने अपना काव्य संग्रह 'शब्द कुछ कहे अनकहे से' राष्ट्रपति को भेंट किया है। इस अवसर पर महामहिम ने उनके व्यस्त सार्वजनिक जीवन के बीच काव्य सृजन की सराहना की। एनपी सिंह के साथ उनके पुत्र याज्ञवल्क्य सिंह भी राष्ट्रपति से मिले। याज्ञवल्क्य सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं और सामाजिक कार्यों में पिता से प्रेरित हैं।
एनपी सिंह के काव्य संग्रह की क्या है खासियत
एनपी सिंह वाराणसी के एक सामान्य किसान परिवार से उठकर देश की शीर्ष प्रशासनिक सेवा में आए और एक मुकाम हासिल किया। इस पूरी यात्रा में उन्होंने जीवन और समाज के प्रत्येक आयाम को करीब से देखा है। अलग-अलग घटनाओं, व्यक्तियों और क्षेत्रों का अनुभव किया है। यही सबकुछ इनके काव्य संग्रह 'शब्द कुछ कहे अनकहे से' पढ़ने को मिलता है। आधुनिक नारीवाद, प्रकृतिवाद, आदिवासी, दलित और निर्बल वर्ग की वेदनाएं इन कविताओं में सहज रूप से महसूस की जा सकती हैं। भारतीय परिवेश में आज स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी युवा, किसान, गरीबी, जातिवाद, साम्प्रदायिक असहिष्णुता और गैर बराबरी से जुड़ी समस्याएं घटने की बजाय बढ़ी हैं। संग्रह की कविताएं इन सवालों को खड़ा ही नहीं करती हैं, अपितु इनका समाधान भी बताती हैं। एनपी सिंह अपनी पूरी प्रशासनिक सेवा और अब तक की जीवन यात्रा के दौरान जिन सवालों के जवाब तलाशते रहे, शायद उन्हीं सवालों ने इन कविताओं की शक्ल ले ली है।
अमेरिकन यूनिवर्सिटी फॉर ग्लोबल पीस ने दी डॉक्टरेट की मानद उपाधि
एनपी सिंह फिलहाल भारतीय संस्कृति समन्वित पद्धति पर आधारित भारतीय शिक्षा बोर्ड के कार्यकारी अध्यक्ष हैं। एनपी सिंह को इसी साल 30 जनवरी को 'अमेरिकन यूनिवर्सिटी फ़ॉर ग्लोबल पीस' ने डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया है। एनपी सिंह को उनके सामाजिक क्षेत्र में निरन्तर सृजनात्मक कार्यों के लिए यह सम्मान दिया गया। गौतमबुद्ध नगर में बतौर जिलाधिकारी रहते एनपी सिंह ने खनन माफिया पर कड़ी कार्रवाई की थी। जिस पर 5 मार्च 2017 को न्यूयॉर्क टाइम्स अखबार के इंटरनेशनल एडिशन में विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी। एनपी सिंह उत्तर प्रदेश के अति पिछड़े जिलों मिर्जापुर और सोनभद्र की सीमा पर कोल जनजाति के लिए वर्ष 2011-12 से आईटीआई कॉलेज चला रहे हैं। क्षेत्र में पनप रहे नक्सलवाद को नियंत्रित करने में बड़ी मदद मिली।
बावरिया और आदिवासी समाज को सम्मान दिलाने के लिए प्रयास किए
शामली में जिलाधिकारी रहते हुए एनपी सिंह ने कुख्यात हो चुके बावरिया समुदाय के लिए काम किया। उन्होंने वर्ष 2013 में इस समाज की 500 युवतियों, महिलाओं और परिवारों को प्रेरित किया। बड़ी संख्या में बावरिया बच्चे आईटीआई और पोलीटेक्निक कॉलेज में गए। परिणाम यह रहा कि दिल्ली यूनिवर्सिटी में लड़कियां पढ़ रही हैं और प्रशासनिक सेवाओं में जाने के लिए तैयारी कर रही हैं। बावरिया युवक और युवतियां बैंक, प्राइमरी स्कूलों में टीचर और पुलिस में गए हैं। एनपी सिंह ने छत्तीसगढ़ के बालोद, रायपुर और कांकेर जिलों में आदिवासी समुदाय के लिए प्रेरणा केंद्र खोले हैं। इस अभियान का उद्देश्य आदिवासी समुदाय को मुख्यधारा में लाना है। उन्होंने अपने पैतृक जिले वाराणसी के पिछड़े और ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों के लिए स्कूल खोला। यह स्कूल प्रतिवर्ष 250 छात्राओं को निःशुल्क पढ़ाता है। एनपी सिंह जिले के दूसरे स्कूलों में पढ़ने वाले मेधावी बच्चों को निःशुल्क शिक्षा और छात्रवृत्ति दे रहे हैं।
जब वह वर्ष 2000 में एसडीएम नैनीताल थे, तब नैनी झील में डेल्टा बन गए थे। झील संकट में थी। उसकी सफाई और पुनरुद्धार के लिए प्रशासन को 33 करोड़ रुपये की जरूरत थी। नवसृजित राज्य की सरकार यह पैसा देने में असमर्थ थी। एनपी सिंह ने 'सेव लेक कैम्पेन' चलाया। वहां झील में 27 नाले आते थे। एनपी सिंह ने एक नाले पर खुद अकेले श्रमदान शुरू किया। फिर देखादेखी यह बड़ा जनांदोलन बन गया। नवम्बर 2000 से मार्च 2001 तक महज 5 माह में जनसहयोग से ना केवल सारे नाले बल्कि झील के डेल्टा साफ हो गए। उस वक्त उत्तराखंड के अखबारों ने एनपी सिंह को 'नक्खी ऋषि' की संज्ञा दी। यह पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक जागरूकता की दिशा में बड़ा काम था।
आपको बता दें कि एनपी सिंह ने उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर, शामली सहारनपुर और आजमगढ़ जैसे महत्वपूर्ण जिलों में बतौर जिलाधिकारी काम किया। इन जिलों में सांप्रदायिक सद्भाव, राष्ट्रप्रेम, महिला उत्थान और शिक्षण संस्थाओं के विकास में किए गए उनके कार्यों को याद किया जाता है।"
आसान नहीं थी शुरुआत : एनपी सिंह
एनपी सिंह अपने अनुभव साझा करते हुए बताते हैं, "शुरुआती दिनों में यह काम आसान नहीं था। बच्चों को निःशुल्क पढ़ाने के लिए भी गांव-गांव जाकर प्रेरित करना पड़ता था। आदिवासी इलाकों में छोटी उम्र में ही बच्चे मजदूरी करने लगते हैं और युवा मनरेगा में काम करते थे। इसी आय से उनके परिवार चल रहे थे। उनके परिजनों का कहना था कि अगर बच्चे और युवक पढ़ने जाएंगे तो परिवार का भरण-पोषण कैसे होगा? इस समस्या का समाधान करने के लिए कक्षाओं का समय समायोजित किया गया। समाज कल्याण विभाग की ओर से मिलने वाली प्रतिपूर्ति छात्रवृत्ति इन लोगों के बैंक खातों में आती है। यह धनराशि शिक्षण संस्थान नहीं लेते हैं। इन्हीं परिवारों को आर्थिक सहायता के रूप में दे दी जाती है।"
शामली जिले में बावरिया समुदाय से जुड़े अपने संस्मरणों के बारे में एनपी सिंह कहते हैं, "वहां महिलाओं और लड़कियों ने बड़ा सहयोग दिया। लड़कियों ने अपने पिता और भाइयों से कहा कि हमारी इज्जत के लिए अपराध छोड़ दो। कुछ दिनों में यह पीपल मूववमेंट बन गया। आज वही लड़कियां पुलिस, टीचर और बैंकर बन गई हैं। कई लड़कियां तो आईपीएस बनकर अपने समाज को नई दिशा देना चाहती हैं। बावरिया समाज की ऐसी युवतियां दिल्ली में रहकर सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रही हैं।"