New Delhi : आज का दिन बड़ा ख़ास है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी पर आज ही के दिन ठीक 100 साल पहले राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया था। तब देश की आजादी की लड़ाई को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने बापू के खिलाफ इसका दुरूपयोग किया था। इस कानून के भारतीय इतिहास में एक ख़ास पन्ना और है। यह पहली बार लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के खिलाफ इस्तेमाल किया गया था। यह कानून आज भी भारतीय दंड संहिता में है और इसे वक्त-वक्त पर खत्म करने की मांग उठती रही है।
भारत में राजद्रोह कानून
भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए में राजद्रोह कानून है। यह ब्रिटिश सरकार ने 1870 में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ उठने वाली आवाजों से निपटने के लिए पेश किया था। वैसे यह पहले ब्रिटेन में लागू हुआ और फिर इसे भारत लाया गया था। आईपीसी के मूल मसौदे को 1860 में अधिनियमित किया गया था। एक और बड़ी बात है, यह कानून आईपीसी के शुरूआती संस्करण में शामिल नहीं था। तब कहा गया, देश के खिलाफ बोलना, लिखना या ऐसी कोई हरकत जो देश के प्रति नफरत का भाव रखती हो, वह देशद्रोह कहलाएगी। अगर कोई संगठन देश विरोधी है और उससे अंजाने में भी कोई संबंध रखता है या ऐसे लोगों का सहयोग करता है तो उस व्यक्ति पर भी देशद्रोह का मामला बन सकता है।
फिर दायरा बढ़ता गया
इस कानून का दायरा अंग्रेज सरकार बढ़ाती गई। आगे चलकर तय किया गया कि अगर कोई व्यक्ति सार्वजनिक तौर पर मौलिक या लिखित शब्दों, किसी तरह के संकेतों या अन्य किसी भी माध्यम से ऐसा कुछ करता है, जो सरकार के खिलाफ हो, जिससे देश के सामने एकता, अखंडता और सुरक्षा का संकट पैदा हो. उसे देशद्रोह मन जाएगा। ऐसे अपराध करने वाले को उम्र कैद तक की सजा दी जा सकती है। ब्रिटेन की लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस के एक ब्लॉग में कहा गया है, 19वीं और 20वीं सदी में इस कानून का इस्तेमाल मुख्य रूप से प्रमुख भारतीय राष्ट्रवादियों और स्वतंत्रता सैनानियों के खिलाफ किया गया था। उनके लेखन और भाषणों को दबाने के लिए यह कानून बार-बार अमल में लाया गया था।
गांधी और तिलक पर राजद्रोह
लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस के इस ब्लॉग के अनुसार राजद्रोह कानून के उपयोग का पहला ज्ञात उदाहरण एक अखबार के संपादक जोगेंद्र चंद्र बोस का मुकदमा है। यह मुकदमा 1891 में दर्ज किया गया था। इस कानून से प्रताड़ित होने वाले अन्य प्रमुख लोगों में तिलक और गांधी शामिल हैं। इसके अलावा जवाहरलाल नेहरू, अबुल कलाम आजाद और विनायक दामोदर सावरकर पर भी देशद्रोह का आरोप लगाया गया था। 19 मार्च 1922 को ठीक 100 साल पहले महात्मा गांधी पर राजद्रोह कानून के तहत मुकदमा दर्ज किया गया था। उन्हें तत्कालीन औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में भाग लेने के लिए बॉम्बे में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। बापू ने अपने अखबार 'यंग इण्डिया' में सरकार के खिलाफ कई लेख प्रकाशित किए थे। मार्च 1922 में गांधी जी पर अहमदाबाद के जिला एवं सत्र न्यायाधीश ब्रूमफील्ड आईसीएस की अदालत में राजद्रोह का यह मुकदमा चलाया गया था।
दोनों बरसों जेल में रहे
महात्मा गांधी को छह साल जेल की सजा सुनाई गई थी। बाद में दो साल बाद स्वास्थ्य कारणों से रिहा कर दिया गया था। महात्मा गांधी से पहले तिलक को राजद्रोह से जुड़े तीन मुकदमों का सामना करना पड़ा था। उन्हें दो मामलों सजा भी हुई थीं। वर्ष 1897 में उनके साप्ताहिक प्रकाशन केसरी में एक लेख लिखने के राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। उन्हें 12 महीने के कारावास की सजा सुनाई गई। बाल गंगाधर तिलक ने पुणे में फैले प्लेग और अकाल के दौरान सरकार की कटु आलोचना की थी। तिलक के अग्रलेख उनके मुखपत्र केसरी में प्रकाशित हुए थे। उन लेखों से तत्कालीन अंग्रेज सरकार बौखला उठी थी। उनके विरुद्ध राजद्रोह का यह मुकदमा उसी कारण चलाया गया था।
भारत में कानून की जरूरत?
अब इस कानून की मौजूदगी पर लगातार सवाल खड़े होते हैं। हालिया वर्षों में विभिन्न लोगों पर आईपीसी के इस प्रावधान के तहत मुकदमे दर्ज किए गए हैं। जिसमें कश्मीर पर विवादास्पद टिप्पणी को लेकर लेखक अरुंधति रॉय, 2015 में पाटीदार आरक्षण आंदोलन कर रहे हार्दिक पटेल और हाल ही में सामाजिक कार्यकर्ता दिशा रवि, कन्हैया कुमार, उमर खालिद, पत्रकार विनोद दुआ और सिद्दीकी कप्पन शामिल हैं। इन लोगों के खिलाफ इस कानून के तहत कार्रवाई का ना केवल विरोध हुआ बल्कि सरकार से यह कानून खत्म करने की मांग उठ रही है।